इस बात को सालभर से ज्यादा हो गया है, मेरे ऑफिस में मेरा एक साथी था (हालांकि जो अब कहीं और ट्रांसफर है)। वह अपने दो अन्य साथियों के साथ ऐसी ही सर्दी की रात में बोलेरो गाड़ी में कहीं किसी फंक्शन को जा रहा था। घर से निकलने से पहले उसके भाई ने उसे मना किया कि रात हो चुकी है इसलिए कार्यक्रम रद्द कर दें। लेकिन मेरे इस साथी ने उनको ध्यान से जाने की बात कहकर टाल दिया। उसे फिर उसकी भाभी ने मना किया, लेकिन वो क्या करता, आगे सब प्रोग्राम पहले से तय हो चुका था और फिर वैसे भी आजकल हम बाहर के लोगों से की गई बात को घर के लोगों के मुकाबले काफी ज्यादा ही तवज्जो देते हैं, सो भाभी को भी किसी तरह समझा दिया कि ठीक से जाकर सुबह वापिस आ जाऊंगा।
अब बात केवल यहीं तक की नहीं थी। अपनी माँ को भी दिलासा दिया, जिन्होंने उसे रोकना चाहा था। हमारे ऑफिस के ड्राइवर की गाड़ी होने से मैनेजर साहब को गाड़ी की बात बताई गई तो उन्होंने भी पहले मना ही किया। और इस तरह हर तरफ से मिले संकेत नकार दिए गए और ट्रिप स्टार्ट हुई।
वे तीन लोग थे गाड़ी में। सब 18 से 25 की उम्र के। फिर ऐसे में स्पीड की बात क्यों ना हो। गाड़ी तेजी से हाइवे पर दौड़ रही थी। म्यूजिक कैसे ना बजता। तीन दिमाग साथ हो तो कोई भी गाना तीनों को कैसे पसंद आता। एक अँधेरे-भरे मोड़ पर जब गाड़ी हवा से बातें कर रही थी, उनमे से एक, ड्राइवर-साथी ने म्यूजिक सिस्टम पर गौर करते हुए कुछ स्विच घुमाने को जैसे ही थोड़ा झुका और स्विच छेड़ते हुए अचानक सामने सड़क का घुमाव पाया, इससे पहले की ब्रेक लग पाते, 4-wheeler Bolero गाड़ी सड़क से हवा में लहराती जब कच्ची रेतीली, जमीन पर उतरती है तो खुद उनमें से किसी को नहीं पता चलता कि इसके बाद गाड़ी ने कितने पलटे खाये थे। कितने पेड़ और झाड़ियाँ उनको रोकने की कोशिश में रौंदे गए! सबसे ज्यादा घायल मेरा ऑफिस वाला साथी ही हुआ था क्योंकि वो गाड़ी में से उछलकर बाहर जा गिरा और कोई पत्थर से सर जा लगा। उसका एक साथी जो उठ-चल पाया, उसने आते-जाते वाहनों में से किसी की मदद से हॉस्पिटल की राह दिलवाई। मेरे साथी को गंभीर चोट लगी थी। कुछ दिन कोमा का दौर चला। होश में आने पर उसे सबसे पहले वो सब लोग याद आने लगे जिन्होंने उसे उस रात बाहर जाने से मना किया था। लेकिन इनमें से भी सबसे पहले... माँ... इससे पहले उसे कभी इस तरह नहीं रोका गया था। तो...? तो क्या, संकेत मिला करते हैं..?
खैर वो उसका एक कल था, जिससे उसने सबक लिया। उसकी शख्सियत अब पहले जैसी नहीं है। इससे पहले कि हम उसे बुरा समझने की जल्दबाजी करें, जरा सोचिये, आप और हम भी अक्सर ऐसे संकेत नज़रअंदाज़ करते आए हैं। हम भी अक्सर जीवन के छोटे दिखने वाले अहम निर्णय बिना सबसे या बिना घरवालों से बतियाये तुरंत और खुद ही कर लेते हैं। कभी-कभी तो बस एक फोनकॉल-भर की जरुरत होती है। और तो और तमाम संकेत मिलने के बाद भी अक्सर हम अपने ख़्वाब की ओर दौड़ पड़ते हैं। अक्षय कुमार की आने वाली फ़िल्म 'एयरलिफ्ट' में एक डायलॉग सुनने को मिलेगा जिसमे अक्षय कहते हैं, "आदमी की फितरत ही ऐसी है.. चोट लगती है ना, तब आदमी माँ-माँ चिल्लाता है।"
ज़रा ठहर के सोचिएगा, यदि आप किसी ऐसी परिस्थिति से गुजर रहे हैं, तो क्या आपको कोई संकेत मिल रहे हैं या चोट खाने के बाद माँ याद आएगी?
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