Thursday, December 27, 2018

पुस्तक समीक्षा : बड़ी सोच का बड़ा जादू

..और डेविड जे. श्वार्ट्ज की पुस्तक 'बड़ी सोच का बड़ा जादू' समाप्त की। मेरी पढ़ी गई पिछली दो पुस्तकों की तरह यह पुस्तक भी आत्म-विकास श्रेणी से है और जो व्यक्तित्व विकास, सकारात्मक सोच, परिश्रम पर जोर देने और जो भी आप करते हैं उसे पसंद करने इत्यादि मूलभूत सकारात्मक दृष्टिकोण संदर्भित विषयों पर केन्द्रित है।

इसके बारे में मेरी व्यक्तिगत राय यहीं है कि 1959 में जब इसका सबसे पहला संस्करण छपा था, जरुर तब इसने लाखों लोगों को प्रभावित किया लेकिन आज के सन्दर्भ में इसे अपडेट नहीं किया गया है। आज जब हम अपने डिजिटल वातावरण में हर तरफ प्रेरणादायी चलचित्र, किस्से, तथ्य, पोस्ट्स और ब्लोग्स देख-पढ़-सुन रहे हैं, यह पुस्तक जिस पठनीय सामग्री, जीवन-सिद्धांतों और आवश्यक तत्वों का प्रयोग करने की बात कहती हैं, वह आज के सन्दर्भ में सामान्य से नियम लगने लगते हैं जिनमें से अधिकांश हम पहले से जानते हैं। इससे पुस्तक एकदम नीरस और फीकी जान पड़ती है। साथ ही पुस्तक किसी सिखाये जा सकने वाले सिद्धांतों के अध्यायों के किसी क्रमबद्ध प्रारूप में भी नहीं होने से इसे समाप्त कर देने पर तमाम समीकरण अदृश्य हो जाते हैं। यानि एक अध्याय का अगले अध्याय से कोई जुड़ाव नहीं, हर अध्याय जैसे एक अलग किताब हो। क्रमबद्धता होने पर आप एक के बाद एक, अध्यायवार, तमाम तकनीकों को बाद में कभी भी अपने ध्यान में ला सकते हैं। इसके अलावा व्यक्तित्व विकास या सेल्फ-हेल्प की जिस श्रेणी में यह पुस्तक है, वहाँ उदाहरणों का प्रयोग अनिवार्य होता है और बार-बार होना चाहिए, किन्तु इस मामले में भी पुस्तक में लगभग गिने-चुने उदाहरण देखने को मिलते हैं और हमें सिर्फ थ्योरी पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है। किन्तु फिर भी यदि कोई इस श्रेणी की पहली पुस्तक के तौर पर 'बड़ी सोच का बड़ा जादू' पढ़ता हो, तो उसे यह काफी पसंद आएगी। अध्यायों का क्रमवार आपस में जुड़े न होना दूसरी प्रकार से देखा जाये तो इसलिए अच्छा भी कहा जा सकता है कि पुनः पुस्तक उठाकर कहीं से भी पढ़ी जा सकती है। यह विद्यार्थियों, छोटे और मंझले कारोबारियों और गृहणियों के लिए एक बेहतर पुस्तक है।

खैर, बात करते हैं पुस्तक में अलग-अलग अध्यायों में दिए तरह-तरह के ज्ञान-कोष की। मैं समूची पुस्तक से बिन्दुवार अहम् तथ्यों को संकलित कर एक सारांश प्रस्तुत करता हूँ, जो इस प्रकार से है :

  • पूछने और सुनने की आदत डालें। याद रखें: बड़े लोग लगातार सुनते हैं और छोटे लोग लगातार बोलते हैं।
  • अपने मस्तिष्क को व्यापक बनाएँ। दूसरों के विचारों से प्रेरणा लें। ऐसे लोगों के साथ उठे-बैठें, जिनसे आपको नए विचार, काम करने के नए तरीके सीखने को मिल सकते हों।
  • माहौल के प्रति सचेत बनें। जिस तरह अच्छा भोजन शरीर को शक्ति देता है, उसी तरह अच्छे विचार आपके मस्तिष्क को शक्ति देते हैं। दमनकारी शक्तियों, नकारात्मक लोगों, छोटी सोच वाले लोगों से सचेत रहे और इनके चक्कर में न आएँ।
  •  अपनी असफलता के लिए दूसरों को दोष मत दीजिये। याद रखें: 'हारने के बाद आप जिस तरह से सोचते हैं, इसी बात से तय होता है कि आप कितने समय बाद जीतेंगे।'
  • परिस्थितियों के आदर्श होने का इंतजार मत कीजिये। वे कभी आदर्श नहीं होंगी। भविष्य की बाधाओं और कठिनाइयों की उम्मीद कीजिए और जब वे आएँ तब आप उनको सुलझाने का तरीका खोजिये।
  • असफलता का अध्ययन करें, ताकि आप सफलता की राह पर आगे बढ़ सकें। जब आप हारें तो उस हार से सबक सीखें और अगली बार पुनः जीतने की तैयारी करें। अपनी गलतियाँ और कमजोरियाँ खोजें और सुधारें।
  • अपने आप में निवेश करें। ऐसी चीज़ें खरीदें जिनसे आपकी मानसिक योग्यता और शक्ति बढ़े। शिक्षा में निवेश करें। विचारशील सामग्री में निवेश करें।
  • कोई भी काम करने से पहले खुद से यह सवाल पूछें : "अगर मैं सामने वाले की जगह होता, तो मैं इस बारे में क्या सोचता?" जिन्हें आप प्रभावित करना चाहते हैं, उन लोगों के नजरिये से चीज़ों को देखें। दूसरों से वहीं व्यवहार करें जो आप अपने लिए चाहते हैं।
  • अपने आप से बात करने के लिए समय निकालें और अपने चिंतन की प्रबल शक्ति का दोहन करें। एकांत के बहुत फायदे होते हैं। इसका उपयोग अपनी रचनात्मक शक्ति को मुक्त करने में करें। हर दिन सिर्फ सोचने के लिए कुछ समय अकेले गुजारें।
 और आखिर में प्युबिलिअस साइरस के शब्दों में...

"बुद्धिमान मनुष्य अपने दिमाग का मालिक होता है
और मूर्ख इसका गुलाम।"


 

Wednesday, December 19, 2018

फ़िल्म समीक्षा : It's a Wonderful Life (1946)

हाल ही में 8 दिसंबर को एक अंग्रेजी फ़िल्म देखी, नाम था- It's a Wonderful Life. न तो ये कोई नवीनतम फ़िल्म थी न ही हिन्दी डब्ड और न ही रंगीन। यह 1946 में आई एक ब्लैक-एण्ड-व्हाईट फ़िल्म थी, जिसके बारे में काफी सुना-पढ़ा था इसलिए देखने का कौतूहल पैदा हुआ।

किन्तु देखने के बाद वाकई यों लगा जैसे यह फ़िल्म अनंतकालीन (यानी जिसकी कोई उम्र न हो, चिरयुवा) फ़िल्म थी जो आज भी उतनी ही जरूरी है जितनी तब थी जब यह रिलीज़ हुई। इसे देखते वक़्त क्लाइमैक्स के ऐन पहले बेहतरीन अभिनेता- जिम कैरी की मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्म 'ब्रूस ऑलमाइटी' की याद ताज़ा हो जाती है। It's a Wonderful Life हर इंसान को जरूर एक बार देखनी चाहिए। यह आपके थके हुए कंधों को वो आराम देती है जो किसी ऐलोपैथी दवा में नहीं मिल सकता। यह आपकी आत्मा को झिंझोड़ती है, हताश इरादों में नई उमंग लाती है, आपके नकारात्मक हो चुके नज़रिये को सकारात्मकता का एक पुट देती है, कठिन रास्तों पे टूट चुके साहस को पुनः संगठित कर एक ऐसा हौसला देती है जो कोई भी जीव अपने नन्हे नवजात को उसके पैरों पर खड़े करने और आगे बढ़ने के लिए देता है।

यह जॉर्ज बैली की कहानी है, जो अपने जीवन में रोज नई मुसीबत झेलता है, सपने देखता है, उन्हें टूटते देखता है, लड़खड़ाता है, ठहरता है, बिखरता है, सम्भलता है और पुनः बिखरता जाता है। धीरे-धीरे निराशा में कुंठित होता जाता है और एक समय ऐसा आता है जब हर कोई ईश्वर से उसके लिए प्रार्थना करता है कि वो जॉर्ज के साथ न्याय करे, उसे सही राह दिखाए। क्रिसमस की एक रात जब पूरी तरह से आर्थिक और मानसिक दिवालिया हो जाने पर जॉर्ज नदी पर स्थित एक पुल से कूदकर अपनी इस दुःखद कहानी को खत्म करने ही वाला होता है तभी स्वर्गलोक में ईश्वर इस एक शख्स के लिए अपने पास आई अनेकों प्रार्थनाओं की ओर ध्यान देकर तुरंत एक अवतार को वहाँ भेजता है। उसके बाद जो संदेश आगे की कहानी हमें देती है उसे सीमित शब्दों में लिखकर हूबहू उसी प्रकार से प्रदर्शित करना बिल्कुल असंभव और अनुचित है। इसे चलचित्र रूप में ही देखा जाना चाहिए।

इसे हर उस शख्स को एक बार जरूर देखना चाहिए जो ज़िन्दगी की आपाधापी में खुद को पीछे छोड़ता जा रहा हो, जो अंदर ही अंदर हारता और टूटता जा रहा हो और जो थोड़ी-बहुत अंग्रेजी समझता हो। कुछ फिल्में होती है जो आपको सही दिशा देने का माद्दा रखती है, जो आने वाले बरसों तक आपको याद रहती है, बार-बार आंखों के सामने आती है, कानों में गूंजती रहती है, जो आपके जहन पर सकारात्मक प्रभाव डालती है, जो आपकी अंतरात्मा से प्रत्यक्ष वाद करती है और इसे जगाती है यदि यह सुप्तावस्था में हो। ऐसी ही एक फ़िल्म है - It's a Wonderful Life.

और अंत में..

"Each man's life touches so many other lives. When he isn't around he leaves an awful hole, doesn't he?"

Tuesday, December 4, 2018

पुस्तक समीक्षा : अतिप्रभावकारी लोगों की 7 आदतें

..और स्टीफन रिचर्ड्स कवी की पुस्तक 'अतिप्रभावकारी लोगों की 7 आदतें' समाप्त की। यह पुस्तक The 7 Habits of Highly Effective People का हिंदी संस्करण है। यह पुस्तक मेरे संग्रह में तब से है जब मुझे किताबों का बिलकुल भी शौक नहीं था। हाल ही में इसे इत्मीनान से पढ़ने का भरपूर समय और अवसर मिला। हाल ही में इसके लेखक स्टीफन, जो कि एक साईक्लिस्ट भी थे, अप्रैल 2012 में अमेरिका में उताह स्थित, रॉक केन्यन पार्क में एक पहाड़ी से बाईक दुर्घटना में गिरने, गंभीर चोटिल होने और बाद में उक्त दुर्घटना से बिगड़ती शारीरिक स्थिति के कारण 16 जुलाई 2012 को उनके निधन हो जाने से विश्वभर में चर्चा में आ गए और उनकी पुस्तकों को भी याद किया गया।

चलिये, अब पुस्तक की बात करते हैं। सबसे पहले तो ये बता ही देना चाहूँगा कि यह एक शानदार और बेहतरीन पुस्तक है। अवसर निकालकर मुझे इसे काफी पहले ही पढ़ लेना चाहिए था। 'सेल्फ-हेल्प' श्रेणी में हर साल अनेकों पुस्तकें छपती है, किन्तु विरले ही कोई सही मायने में प्रभावकारी हो पाती है। 'अतिप्रभावकारी लोगों की 7 आदतें' इस मामले में ऐसी ही एक बेहतरीन पुस्तक है जो अपने नाम की तरह ही वास्तव में प्रभावकारी है। साथ ही यह प्रेरक, व्यावहारिक और रोमांचक भी है। इस पुस्तक को पढ़ने का मेरा अपना अनुभव एकदम अलग था। एक समय था जब मैं 150 से 200 पेज की पुस्तक को पूरा करने में भी महीना लगा देता था क्योंकि पेज और शब्द-सीमा देखकर ही अक्सर पढ़ते-पढ़ते बाद में, अगली बार कभी पढ़ने का इरादा आ जाया करता था और पुस्तक धरी रह जाती थी। ऐसे में 450 से भी अधिक पेज की यह पुस्तक पढ़ना शुरू करने में ही मैंने इतना अरसा निकाल दिया। किन्तु जब इसे शुरू किया, यह धीरे-धीरे दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा बनती गई। देखते ही देखते मैंने इसे 15 ही दिनों में पढ़ डाला। इसी से इसका ज़ायका कैसा है, यह अनुमान लगाया जा सकता है।

यह पुस्तक चार मुख्य भागों में विभाजित है:
1- पैरेडाइम्स और सिद्धांत : यहाँ अपने सबसे अंदरूनी हिस्से यानि अपने पैरेडाइम, अपने चरित्र और अपने उद्देश्यों से शुरुआत करने की बात की गई है। यहाँ संक्षिप्त में सातों आदतों का ब्यौरा दिया गया है, मसलन: प्रोएक्टिव बनें, अंत को ध्यान में रखकर शुरू करें, पहली चीज़ें पहले रखें, जीत/जीत सोचें, पहले समझने की कोशिश करें फिर समझे जाने की, सिनर्जी का प्रयोग करें और आरी की धर तेज करें। इन्हें पुस्तक के बाकि तीनों भागों में बांटकर विस्तृत रूप से बताया गया है।

2- व्यक्तिगत विजय : पहली तीन आदतों के साथ बताया गया है कि हमारा व्यवहार सिद्धांतों द्वारा संचालित होता है। इनके सामंजस्य में जीने से सकारात्मक परिणाम मिलते हैं, इनका उल्लंघन करने से नकारात्मक परिणाम मिलते हैं। किसी भी स्तिथि में हम अपनी प्रतिक्रिया चुनने के लिए स्वतन्त्र हैं, परन्तु ऐसा करते समय हम उसके परिणाम को भी चुनते हैं। हमारे जीवनमूल्य और दिशाएँ स्पष्ट होने चाहिए। इसका अर्थ है अपनी स्क्रिप्ट दोबारा लिखना ताकि हमारे व्यवहार और दृष्टिकोण को उत्पन्न करने वाले पैरेडाइम्स हमारे गहनतम जीवनमूल्यों से मेल खाएँ और सही सिद्धांतों के तारतम्य में हों। एक व्यक्तिगत मिशन स्टेटमेंट तैयार किया जाये, जिसका फोकस इस बात पर हो कि आप क्या बनना चाहते हैं और क्या करना चाहते हैं। आप अपने व्यक्तिगत मिशन स्टेटमेंट को व्यक्तिगत संविधान कह सकते हैं। इसके अलावा हम अत्यावश्यक मामलों पर तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं। चीजों और कामों को प्राथमिकताएँ देने सम्बन्धी विषय पर विशेष अध्याय लिखा गया है।

3- सार्वजनिक विजय : यहाँ चौथी, पाँचवीं और छठी आदतों के तहत बताया गया है कि जीत/जीत जीवन को प्रतियोगी क्षेत्र के रूप में न देखकर सहयोगी क्षेत्र के रूप में देखती है। यह मानवीय व्यवहार का सम्पूर्ण पैरेडाइम है। साथ ही परानुभुतिपूर्वक सुनने (अर्थात समझने के इरादे से सुनना) की योग्यता का चरित्र की नींव पर निर्माण करने की बात कही गई है। इसके अलावा सिनर्जी अर्थात कोई चीज़ अपने हिस्सों के योगफल से कैसे बड़ी होती है सुन्दरता के साथ बतलाया गया है। इसका मतलब है हिस्सों का एक-दूसरे के साथ जो सम्बन्ध है वह भी एक हिस्सा है और यह सिर्फ हिस्सा ही नहीं है, बल्कि सबसे उत्प्रेरक, सबसे शक्तिदायी, सबसे एकात्मक और सबसे रोमांचक हिस्सा है। सिनर्जी प्रकृति में चारों ओर है। अगर आप दो पौधों को नजदीक लगा दें, तो उनकी जड़ें आपस में मिल जाती है और मिट्टी की गुणवत्ता को सुधार देती है, ताकि दोनों पौधे उससे बेहतर बढ़ सकें, जितना वे अलग-अलग बढ़ सकते थे। सिनर्जी का सार मतभिन्नताओं को महत्त्व देना हैं, शक्तियों को बढ़ाना है, कमजोरियों की भरपाई करना है।

4- नवीनीकरण : यहाँ सातवीं आदत के तहत आपकी सबसे बड़ी संपत्ति यानि आप 'स्वयं' को, आपके स्वभाव के चारों आयामों - शारीरिक, आध्यात्मिक, मानसिक और सामाजिक/भावनात्मक के नवीनीकरण द्वारा सुरक्षित रखना और विकसित करना बताया गया है।

और इस तरह कुल मिलाकर यह वास्तव में व्यक्तिगत प्रभावकारिता में सुधार लाने के मामले में बेहतरीन पुस्तक है। यह बहुत कुछ नया बताती है जो हम या तो जानते ही नहीं या जानते हुए भी दृष्टिकोण के यहाँ दर्शाए गए सुन्दर और असरदार ढंग से देख और समझ पाने में असमर्थ रहे। व्यक्तिगत विकास की अनेकानेक पुस्तकों में 'अतिप्रभावकारी लोगों की 7 आदतें' अपना एक अलग स्थान पाती है। यह विस्तृत मनोविज्ञान की एक सारगर्भित पुस्तक है। यह पुस्तक हर उस शख्स के लिए है जो स्वयं के जीवन और जीवनमूल्यों में सिद्धांत-केन्द्रित दृष्टिकोण के साथ आत्मविकास, प्रभावकारिता और आत्मप्रेरण लाने का अवसर पाना चाहते हों। कहीं-कहीं भाषा कुछ गूढ़ भी हो चलती है लेकिन सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ डालने के बाद आप इसे सरल ही कहना चाहेंगे।

और आखिर में...

"जब मैं महान लोगों की समाधियों को देखता हूँ, तो मेरे अन्दर ईर्ष्या का हर भाव मर जाता है। जब मैं सुन्दर लोगों के समाधि-लेख पढ़ता हूँ, तो मेरी हर प्रबल इच्छा बाहर हो जाती है। जब पुत्र की समाधि के पत्थर पर माता-पिता के दुःख से मेरा सामना होता है, तो मेरा ह्रदय करुणा से भर उठता है। जब मैं स्वयं माता-पिता की समाधि देखता हूँ, तो मैं उन लोगों के लिए शोक मनाने की निरर्थकता पर विचार करता हूँ, जिनके पीछे हम भी जल्दी ही चले जायेंगे। जब मैं सम्राटों को उन लोगों के पास लेटे देखता हूँ, जिन्होंने उन्हें गद्दी से हटाया था; जब मैं  शत्रु विद्वानों को पास-पास बनी कब्रों में देखता हूँ या उन धार्मिक व्यक्तियों को एक-दूसरे के निकट दफ़न देखता हूँ, जिन्होंने अपने विवादों से विश्व को विभाजित किया था, तो मैं मानवजाति की छोटी-छोटी प्रतिस्पर्धाओं, गुटबंदियों और विवादों पर विचार करते हुए दुःख और आश्चर्य से भर जाता हूँ। जब मैं लोगों की समाधियों पर लिखी मृत्यु की अलग-अलग तारीखें पढ़ता हूँ, जिनमें से कुछ कल की होती हैं और कुछ छः सौ साल पहले की, तो मैं उस महान दिन के बारे में सोचता हूँ ,जब हम सब समकालीन होंगे और एक साथ नज़र आयेंगे।"


Monday, November 26, 2018

पुस्तक समीक्षा : शिखर पर मिलेंगे

..और ज़िग ज़िग्लर की पुस्तक 'शिखर पर मिलेंगे' समाप्त की। सेल्फ-हेल्प श्रेणी की यह पुस्तक नकारात्मक सोच से परे चलने, किसी हारे हुए व्यक्तित्व के बहानों, आत्म-विश्लेषण के कदमों और सफल-सार्थक जीवन हेतु विभिन्न बेहतरीन व्यावहारिक सिद्धांतों की अच्छी व्याख्या करने के साथ-साथ कहीं-कहीं जरुरत से ज्यादा राजनीतिक और धार्मिक बातें भी उगल जाती है, जिन्हें पाठक स्वयं अपने आत्म-विश्लेषण से स्वीकार या अस्वीकार करे तो अच्छा होगा। कहीं-कहीं यह मूल विषय से भटक भी जाती है तो कहीं-कहीं शब्द-सीमा इतनी भी खींची गई है की अध्याय समाप्त कर देने की लालसा बोरियत में तब्दील होने लगती है। हालांकि फिर भी यह पुस्तक अपने आप में एक बेहतर पुस्तक है उन तमाम आकर्षक शीर्षक और मनमोहक कवर डिजायनिंग के साथ उपलब्ध पुस्तकों से, जो सेल्फ-हेल्प श्रेणी में होकर भी मस्तिष्क पर किंचित भी प्रभाव नहीं छोड़ पाती।

पाठ्य सामग्री की जहाँ तक बात की जाए, कुछ खास बातें हैं जिनका जिक्र करना जरुरी समझूंगा। पुस्तक के प्रारम्भ में एक जगह बताया गया है कि सफलता प्राप्त करने के लिए स्वस्थ आत्म-छवि अत्यंत महत्वपूर्ण है। जिस तरीके से आप अपने को देखते हैं, उसके विपरीत ढंग से आप नियमित प्रदर्शन नहीं कर सकते। आपकी आत्म-छवि आपको सीढ़ी के शिखर पर ले जायेगी अथवा तहखाने में ले जाने वाले एस्केलेटर पर रख देगी। आत्म-छवि पर विस्तार में लिखा गया है।

प्रेम-सम्बन्ध मधुर बनाने अथवा मधुर बनाए रखने के बारे में एक जगह लिखा है कि शुद्ध चांदी की तरह प्यार भी अपनी चमक खो देता है यदि इस पर प्रतिदिन रूचि, लगाव एवं प्रेम की अभिव्यक्ति की पॉलिश न की जाये। दुर्भाग्य से बहुत से युगल एक-दूसरे से इतना परिचित हो जाते हैं कि एक-दूसरे की अच्छाइयों की कद्र करना बंद कर देते हैं और फिर विवाह की सबसे बड़ी शत्रु- 'ऊब' पैदा हो जाती है।

लक्ष्य बनाने और उन्हें हासिल करने के बारे में ज़िग लिखते हैं कि दूसरे आपको अस्थाई रूप से रोक सकते हैं, आप अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो ऐसा स्थायी रूप से कर सकते हैं। साथ ही वे कहते हैं कि यदि आप कुछ बड़ा करने की उम्मीद रखते हैं तो आपको अपने लक्ष्य की दिशा में प्रतिदिन कार्य करना चाहिए।

जीवन में परिपक्वता के बारे में लिखा है कि शिष्ट व परिपक्व बनें और याद रखें, यदि आप पराजय से सीखते हैं तो आप वास्तव में पराजित नहीं हुए। इसके अलावा ज़िग लिखते हैं कि हर 'बुरी' आदत दबे पाँव आती है और धीरे-धीरे आप पर इस तरह हावी हो जाती है कि इससे पहले कि आप यह जानें कि आपकी यह आदत है, आप आदत के वश में हो जाते हैं। जीवन में सफलता के बारे में पुस्तक में लिखा गया है कि यह अच्छा हाथ मिले होने से नहीं मिलती। सफलता आपको मिले हुए हाथ को लेकर उसका अपनी सर्वोत्तम योग्यता के अनुसार उपयोग करने से निर्धारित होती है।

इसके अलावा पुस्तक चेतन और अवचेतन मस्तिष्क के कार्य और परिणामों का जिक्र करती है कि कैसे हम चेतन मस्तिष्क से कोई क्रिया नियमित रूप से इनपुट करते हुए उसे अवचेतन मस्तिष्क में खिसका सकते हैं ताकि बाद में वह हमारे जीवन की आदत ही बन जाए। विपरीत परिस्थितियों, सकारात्मक नजरिया, आय-संपत्ति-बचत इत्यादि पर भी प्रकाश डाला गया है।

इस तरह से ज़िग ज़िग्लर की यह पुस्तक सरल रूप से उन तमाम विषयों पर बात करती है जिन्हें एक पाठक आत्म-विकास की किसी पुस्तक में खोजता है। यह अध्यायों में बांटी हुई, तथ्य्परख, विषयकेंद्रित, विभिन्न जीवनोपयोगी सिद्धांत सिखाने वाली, हालाँकि जरुरत से कुछ अत्यधिक विस्तारित किन्तु साथ ही अत्यधिक प्रेरक, प्रभावशील और सार्थक पुस्तक है। इसे इसलिए पढ़ा जाना चाहिए कि हम किसी तीसरे पक्षकार के तौर पर अपना आत्म-अवलोकन करना चाहें जो अन्यथा उतना व्यावहारिक व सार्थक प्रतीत नहीं होता। उम्र के आखिरी पड़ाव पर इसे पढने वाले लोगों ने यह तक कहा है कि काश उन्होंने इसे 20 की उम्र में पढ़ा होता। इस तरह युवकों, विद्यार्थियों, गृहणियों, नव-उद्यमियों के लिए यह एक सकारात्मक, सार्थक और प्रभावकारी पुस्तक है।

और आखिर में...

"हम प्रसन्न, खुशमिजाज़, शालीन व सफल होना चुन सकते हैं। जब हम अपनी आदतें चुनते हैं, तभी यह चुनाव कर लेते हैं। जब हम आदतें बना लेते हैं, तब वे हमें बनाती हैं। हम अपने 'चरित्र' का निर्माण हर रोज इकठ्ठा की गई आदत की इंटों से करते हैं। हर ईंट एक छोटी-सी चीज लग सकती है, परन्तु इससे पहले कि हमें इसकी जानकारी हो पाये, हम उस घर को शक्ल दे चुके होते हैं, जिसमें हम रहते हैं।"

Monday, October 1, 2018

इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..

इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..

सभ्यताओं से परे,
समाजों-रस्मों-रिवाजों से परे..
न जात न भेद,
जहाँ कोई 'दौलत' तक न हों..
न गुजरा न आने वाला कल हो,
जहाँ रोज बस आज हो..
संस्कृतियों का मिथ्या दम्भ न हों,
जहाँ सम जीव हो, सरल जीवन हो..

इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..
कटुताओं से परे,
द्वैष-परिवेश-विशेष से परे..
न आम न खास,
जहाँ कोई 'ओहदा' तक न हो,
न सूद हों न सूदन हों,
जहाँ सिर्फ एक ईश्वर हो..
भाँति-भाँति के आडम्बर न हों,
जहाँ नम चित्त हो, नयन पावन हों..

इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..

Friday, January 19, 2018

पुस्तक समीक्षा : स्वराज

..और अरविन्द केजरीवाल की पुस्तक 'स्वराज' समाप्त की। इस पुस्तक के बारे में दो बातें प्रारम्भ में ही इंगित कर देनी चाहिए - सबसे पहले तो यह बता देना जरूरी होगा कि सम्पूर्ण पुस्तक सत्ता के विकेंद्रीकरण पर जोर देती है। दूसरी अहम् बात ये है कि पुस्तक में जो थ्योरी दी गई है वह अपने आप में कोई नई थ्योरी नहीं है बल्कि यहीं थ्योरी आज से बरसों पहले महात्मा गाँधीजी बता चुके हैं।

यह सच है कि सरकारी तंत्र में पग-पग पर खामियाँ हैं और कई प्रकार की खामियाँ नित नए-नए (नागरिकों हेतु गैर-लाभकारी किन्तु सरकारी अधिकारियों-मंत्रियों हेतु अति-लाभकारी) कानूनों और बिलों को पास करवा कर इजाद भी की जा रही है। तमाम तरह के क़ानून केंद्र में बनते हैं। योजनाएं केंद्र में बनती हैं। अधिकांश योजनाओं का अधिकांश गाँवों-कस्बों की मुख्य समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं होता। वे बस बनाई जाती है ताकि मंत्रियों और बड़े अधिकारियों की आर्थिक तकलीफें दूर हो सके। पुस्तक कहती है कि इसके बजाय प्रत्येक गाँव में ग्राम सभाओं को उनकी असली ताकत मंजूर होनी चाहिए और इन तमाम योजनाओं की बजाय एक मुक्त रकम सीधे ग्राम सभाओं को मिलनी चाहिए। इसके बाद हर उस गाँव के नागरिक स्वयं ग्राम सभा में सरपंच के आगे तय करें कि उन्हें कितनी रकम स्कूल के लिए चाहिए, कितनी निम्नतम आय वाले उस गाँव के उनके द्वारा चयनित किए गए गरीब और बेसहारा लोगों को सहायता देने के लिए चाहिए, कितनी रकम जरुरतमंदों को विभिन्न ऋण योजनाओं के नाम पर आवंटित की जाए, कितनी रकम किस विकास पेटे में दी जाए। यानि सबकुछ ग्राम सभा तय करे और सरपंच मात्र उस निर्णय पर अपनी मोहर लगाए, इसी को स्वराज कहा गया है।

पुस्तक केवल मात्र थ्योरी पर नहीं चलती, वरन् कितनी ही केस स्टडीज भी समाहित किये हुए हैं। महाराष्ट्र के हिवरे बाजार गाँव का उदाहरण उनमें सबसे अनोखा और बेहतरीन है, जिसमें गिरते जा रहे सामाजिक मूल्यों और नैतिक पतन में ख़त्म होते उस गाँव के कुछ किशोर लड़के कैसे खुद आगे आकर एक संगठन निर्माण करने की योजना तय करते हैं और अपने में से एक नौजवान को सरपंच चुनने के बाद तमाम निर्णय लेने के लिए ग्राम सभा करवाने की योजना बनाते हैं। प्रारम्भ में जिसमें इक्के-दुक्के लोग ही हिस्सा लेते हैं लेकिन बाद में धीरे-धीरे लोग आने लगते हैं जब वे देखते हैं कि यहाँ तो अपने बच्चों की शिक्षा के लिए भी बजट बनाया जाता है। एक समय के बाद हिवरे बाजार गाँव की रंगत ही बदल गई।

पुस्तक यह भी कहती है कि आज होता यह है कि गाँव में सबसे शक्तिशाली ग्राम-सभा नहीं बल्कि गाँव का सरपंच होता है और जो सरपंच लिख दे उसे ग्राम-सभा द्वारा अनुचित ठहराने के लिए कोई विकल्प ही नहीं है। आज ग्राम सभा तो होती है किन्तु कहीं भी ग्राम सभा को कोई शक्ति नहीं है। पुस्तक में कई केस बताए गए हैं, जो यह स्पष्ट करते हैं कि आज ग्राम-सभाओं को वाकई में सरपंच के चंगुल से निकालकर खुद सरपंच को ग्रामसभा की मुहर बनाए जाने की सख्त जरुरत है। यदि ग्राम सभा को मुक्त रकम मिले, यदि अधिकारियों को दण्डित करने की शक्ति मिले, यदि सरपंच को भी वापिस बुला लेने की शक्ति मिले तो हर गाँव वाले अपनी असली जरूरतों के आधार पर और उपलब्ध मुक्त फंड की रकम को तरीके से नियोजित करते हुए खुद बेहतर ढंग से अपनी खुद की योजनाएं बना सकेंगे। इससे स्वास्थ सेवाओं का स्तर सुधरेगा, शिक्षा का स्तर सुधरेगा, नशाबंदी में सफलता मिलेगी, नक्सलवाद से छुटकारा मिलेगा, गरीबी-भुखमरी-बेरोजगारी का दमन हो सकेगा।

पुस्तक में विकेंद्रीकरण की इस जबरदस्त थ्योरी पर उठने वाले संशयों, संदेहों और सवालों पर भी जवाब दिए गए हैं। यह वर्तमान सिस्टम की खामियाँ बताती है, विकेंद्रीकरण द्वारा उनके व्यावहारिक हल भी बताती है। यह पुस्तक इसलिए पढ़ी जानी चाहिए ताकि हम जान पाएं कि दिखाए जाने वाले प्रलोभनों और राजनितिक योजनाओं के परे एक 'स्वराज' भी कहीं ओझल हो रहा है, जिसे ढूँढना बेहद जरुरी है। बरसों पहले एक बूढा फ़क़ीर भी हमें यहीं स्वराज दिखाता-दिखाता ओझल हो चुका। अन्यथा इस पीढ़ी की वर्तमान हालत को देखते हुए अगली पीढ़ी से यहीं उम्मीदें रह जाएंगी कि वह कम से कम पर गुजर करना सीख ले। पाँच सालों में वह उस नेता को वोट दे जो अच्छी बात कहता है और जिसका चुनावी एजेंडा भी दमदार है, बजाय इतना भी सोचे कि वह नेता अपनी पार्टी का एक मोहरा है और चुनाव जीतने के बाद वह अपनी पार्टी की ही सुनेगा। पार्टी केंद्र में शक्ति चाहती है ताकि केंद्र से वह समूचे राष्ट्र पर निगरानी रख सके। वह 'अपना अस्तित्व' बनाए रखने के लिए योजनाएं लागू करती है किसी जरूरतमंद का अस्तित्व बनाए रखने के लिए नहीं। अंत में पुस्तक के आखिरी पेज पर लिखी चंद पंक्तियाँ साझा करना चाहूँगा..

"सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए बीस लोग नहीं चला सकते। सत्ता के केंद्रबिंदू दिल्ली, बंबई और कलकत्ता जैसी राजधानियों में है। मैं उसे भारत के सात लाख गाँवों में बांटना चाहूँगा।"
- महात्मा गाँधी


Sunday, January 14, 2018

कभी-कभी मन करता है.. (भाग-1)

कभी-कभी मन करता है, ईश्वर से कहूँ मुझे आपसे कुछ बातें जाननी है। क्या होगा अगर वे मुझे ऐसा मौका दे दें! मैं उनके पास बैठूं, उनसे अपने उन तमाम अनुत्तरित प्रश्नों को साझा करूँ। जानना चाहूँ वो क्या प्रत्युत्तर देते हैं और ठीक उस वक़्त जब वो जवाब दे रहे हों, उनके मनोभाव गौर से देखने की कोशिश करूँ। फिर सोचता हूँ - लेकिन मेरे प्रश्न क्या होंगे? अनेकानेक प्रश्नों में से उस बेहद खास और सीमित समय में किनका चयन करूँगा हल जानने और जिज्ञासा तृप्त करने के लिए?

शायद मैं पूछूँगा कि हमें बनाने के पीछे आपका मकसद क्या रहा था? या कि खुद आपको हमने बनाया है? इन दो में से एक का जवाब हजारों सवालों के जवाब मुझे दे सकेगा। यदि ईश्वर ने हमें बनाया है तो एक बेहद अहम् जिज्ञासा को कौतुहलवश उनसे साझा करूँगा, वो यह कि हम मनुष्य बिना मकसद के जन्म लेते हैं और समझ-बोध प्राप्त होने तक जिम्मेदारियों में उलझकर बाद में आगे की सारी जिंदगी अपने मकसद को खोजने में खपा देते हैं, आखिर क्यों पहले से हमारा कोई मकसद नहीं होता? ऐसे में पग-पग पर कष्टों से भरे इस जग में हमें इस कदर लाने का आखिर औचित्य क्या हो सकता है? क्या मनुष्य जीवन से पहले भी हमारा कोई जीवन रहा होता है, जिसमें कि दुःख-दर्द न होते हों केवल स्वास्थ्य-सुख और तमाम भोग और ताकतों के साथ गुजर करते हों या ऐसा ही कुछ और उस जीवन में हम अपनी जिम्मेदारियां ठीक से न चुकाने के बदले फिर मनुष्य जीवन में परीक्षा देने आते हैं? यह बेवकूफी भरा प्रश्न लग सकता है लेकिन यहीं एक प्रश्न है जो मुझे अक्सर कुरेदता है। हम लोग इस तरह यहाँ क्यों हैं? ऐसे जीवन में इस तरह से हमारी परीक्षा क्यों, हम ही क्यों? हाँ बड़े सज्जन लोग और कईं बड़े-बड़े महात्मा यह कहते हैं कि हमारे जीवन का मकसद अपने आस-पास सबको खुशियाँ बांटना है। लेकिन जब हम ही हमारे समाज में खुश नहीं रह पाते, आने वाले कल और आने वाली पीढ़ी की चिंताओं में अपनों को भी सदैव खुश नहीं रख पाते तो दुनियाभर के ज्ञान खोखले लगने लगते हैं। उसके बाद जिम्मेदारियों की चादर दिन-ब-दिन स्वतः मोटी होती जाती है। क्यों जन्म के समय ही हमें एक मकसद नहीं दे दिया जाता? हम अपने ही पूर्वजों से पाए हुए मकसद ढो रहे हैं, लेकिन कैसे जानें कि वह कितना सार्थक है?

इसके बाद में जानना चाहूँगा कि आपको मिलने वाली अनगिनत प्रार्थनाओं, याचनाओं, विनतियों और निवेदनों में से आप कैसे तय करते हो कि किसे और कितना सुना जाए एवं तत्पश्चात किसे, किस तरह से और कितनी मदद दी जाए? इसे कैसे अंजाम देते होंगे आप? यह कितना पेंचीदा और कठिनतम कार्य है। एक ही समय में एक ही मसले पर दो या दो से अधिक लोगों की विरोधाभासी प्रार्थनाएं भी आती होंगी। तब क्या क्राइटीरिया मायने रखता है। ऐसे में एक याचक अगर खूब दिखा-दिखाकर भक्ति में लीन हो, जरुरत से ज्यादा पैसों या सोने-चाँदी से अपनी भक्ति जाहिर करे और दूसरा याचक अपनी दैनिक जिम्मेदारियों की भागदौड़ में हांफता हुआ आपकी भक्ति के लिए समय ही न निकाल सके तो आप कैसे तय करते होंगे कि किसकी और कितनी मदद की जाए? आज जब विश्वभर में जीवनयापन इतना व्यस्त और महंगा चुका है कि लोग अपने बच्चों तक के लिए समय नहीं निकाल पाते, तब ग्रंथों को पढ़ने या ईश्वर-भक्ति में घंटों लगा देने वाला समय हर किसी के बस में तो है नहीं। तो क्या आज के युग में भक्ति के नियम भी बदलें हैं कि नहीं? क्या यह पहले की तरह ही हैं या कि आप दूसरे पहलुओं पर भी गौर करते हैं जैसे - व्यक्ति की जिम्मेदारियां, उसका मन, मन के भीतर का मैल, जोड़-घटाव, तनाव, चिंताएं, साहस, इच्छाएँ इत्यादि। आज के समय में मेरे विचार में भक्ति का गणित भी अब बदला ही होगा। यह जानना बेहद रोचक और अर्थपूर्ण होगा।

मैं यह भी पूछूँगा कि कुछ लोग ईमानदारी से जीते हुए सारी जिंदगी कष्ट भोगते हुए बिता देते हैं, उन्हें आपसे सदैव उम्मीदे रहती हैं कि आप उनके दुःख जल्द दूर करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। मैंने देखा है उनमें से कईं तो यूँ ही गुजर जाते हैं। ऐसा क्यूँ होता है? तो क्या आप मदद करते भी हैं या कि इससे सारे सिस्टम में छेड़छाड़ हो जाएगी इसलिए नहीं करते? मैंने गीता पढ़ी है और कुछ दुसरे धर्मों के ग्रंथों का सार भी सुना-पढ़ा है और सबका सार यहीं जताता है की जो भी हम भोगते हैं चाहे वह सुख हो या पीड़ा, सब कुछ हमारे ही कर्मों का फल है। मुझे तार्किक दृष्टिकोण से यह बात बहुत संजीदा लगी। यदि कोई दुःख, किसी प्रकार की कोई सजा भी जीवन में मिले तो वह अपने किए बुरे कर्मों के प्रति ही मिले। ऐसा ही होना चाहिए, लेकिन फिर 'पुनर्जन्म' नाम की एक अजीब ही संज्ञा सामने आ जाती है। किसी ने जन्म लिया। नई जीवनरेखा शुरू हुई। और उस नन्हे शिशु को जन्मजात कोई रोग! बड़े सज्जन और बड़े-बड़े महात्मा की मानें तो पिछले जन्म के कर्मों का नतीजा! क्या वाकई पुनर्जन्म नाम की कोई चीज़ है? क्या वाकई कष्ट या सुख भोगने संबंधी पिछले जन्म का इस जन्म से और इसका अगले आने वाले जन्म से कोई लिंक होता है? अगर ऐसा सच में है तो मैं इस चीज़ के लिए सदा आपका आलोचक रहूँगा। आखिर क्यूँ? जब उसे मालूम ही नहीं है कि उसने क्या गुनाह किया था, तो फिर ऐसी सजा के क्या मायने? और अक्सर तो देखने में आता है कि कुछ बच्चे अपनी सारी जिन्दगी उस एक दोष, उस एक पीड़ा, उस एक सजा को लिए निकाल देते हैं जिससे उनका यह सारा जीवन पग-पग पर उन्हें अन्य कितनी ही तरह की मानसिक सजाओं का भोगी बनाए रखता है। उन्हें पता तक नहीं होता कि ऐसा उनके साथ क्यूँ हुआ? ऐसे में जब कभी कहीं किसी दुर्घटना में नन्हे-नन्हे शिशु दुःख भोगते हैं तो पुनर्जन्म नाम की यह संज्ञा आँखों के सामने आ जाती है। अगर पुनर्जन्म नाम का कुछ भी नहीं है तो फिर सवाल आप पर उठता है कि उन निर्दोषों के साथ ऐसा क्यूँ होता है? फिर आपके होने के क्या मायने है और हमें क्यूँ आपको पूजना चाहिए? दरअसल कुछ मामले इतने विचलित कर देने वाले होते हैं कि मन-मस्तिष्क उस पर ईश्वर से संज्ञान लेना चाहता है।

अक्सर मन कितने ही अनगिनत प्रश्न करता है। उनमें से कईं मेरे अपने ईश्वर के लिए होते हैं। मैं अपने ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा रखता हूँ लेकिन अंधश्रद्धा नहीं रख सकता जैसा कि अपने आसपास लोगों को अक्सर रखते देखता हूँ। मैं प्रश्न करना चाहता हूँ क्यूंकि उन्हीं ने मुझे इतना जिज्ञासु बनाया है। बीते समय में मेरे काफी प्रश्नों के जवाब मुझे दिए भी गए हैं। काश कभी उनसे इनके उत्तर मिल सके। कुछ इस तरह के प्रश्नों के उत्तर जानना चाहूँगा यदि मौका मिले, क्यूंकि,

कभी-कभी मन करता है...