इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..
सभ्यताओं से परे,
समाजों-रस्मों-रिवाजों से परे..
न जात न भेद,
जहाँ कोई 'दौलत' तक न हों..
न गुजरा न आने वाला कल हो,
जहाँ रोज बस आज हो..
संस्कृतियों का मिथ्या दम्भ न हों,
जहाँ सम जीव हो, सरल जीवन हो..
इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..
कटुताओं से परे,
द्वैष-परिवेश-विशेष से परे..
न आम न खास,
जहाँ कोई 'ओहदा' तक न हो,
न सूद हों न सूदन हों,
जहाँ सिर्फ एक ईश्वर हो..
भाँति-भाँति के आडम्बर न हों,
जहाँ नम चित्त हो, नयन पावन हों..
इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..
बहुत बढ़िया कविता, लेकिन इस उम्र में दार्शनिक भाव कैसे जागृत हुए
ReplyDeleteबस यूँ ही पढ़ते-पढ़ते लिखने की इच्छा होने लगी. अभी कलम कच्ची है, अभी स्याही गहराने में बहुत वक़्त लगेगा. लेकिन प्रोत्साहित करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.
DeleteNice efforts. Keep enlightening society.
ReplyDeleteRising poet of SBI
ReplyDeleteNice work,keep going.
ReplyDeleteThank you so much sir. Learning from writers like you sir.
DeleteNice work,keep going.
ReplyDeleteदिन भर तलाश होती है उस सुकून की पर कही मिल नही पता है वो,
ReplyDeleteओर जब मिल जाये तो लम्हे भर से ज्यादा ठहरता ही नही ।