Monday, October 1, 2018

इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..

इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..

सभ्यताओं से परे,
समाजों-रस्मों-रिवाजों से परे..
न जात न भेद,
जहाँ कोई 'दौलत' तक न हों..
न गुजरा न आने वाला कल हो,
जहाँ रोज बस आज हो..
संस्कृतियों का मिथ्या दम्भ न हों,
जहाँ सम जीव हो, सरल जीवन हो..

इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..
कटुताओं से परे,
द्वैष-परिवेश-विशेष से परे..
न आम न खास,
जहाँ कोई 'ओहदा' तक न हो,
न सूद हों न सूदन हों,
जहाँ सिर्फ एक ईश्वर हो..
भाँति-भाँति के आडम्बर न हों,
जहाँ नम चित्त हो, नयन पावन हों..

इक दुनिया अक्सर खोजता हूँ..

8 comments:

  1. बहुत बढ़िया कविता, लेकिन इस उम्र में दार्शनिक भाव कैसे जागृत हुए

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    1. बस यूँ ही पढ़ते-पढ़ते लिखने की इच्छा होने लगी. अभी कलम कच्ची है, अभी स्याही गहराने में बहुत वक़्त लगेगा. लेकिन प्रोत्साहित करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.

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  2. Nice efforts. Keep enlightening society.

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  3. Replies
    1. Thank you so much sir. Learning from writers like you sir.

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  4. दिन भर तलाश होती है उस सुकून की पर कही मिल नही पता है वो,
    ओर जब मिल जाये तो लम्हे भर से ज्यादा ठहरता ही नही ।

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