Sunday, October 27, 2013

शेर-ओ-शायरी (भाग-1)

पलभर में पनपता पलभर में टूटता है प्यार आजकल,
कृष्ण का-सा प्रेम अब कही देखने को नहीं मिलता.


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जिधर निगाह उठाऊं उधर गुनाहगार नज़र आते हैं,
किसी से इश्क क्या हुआ सबने मुझे गुनाहगार कह दिया.


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यूं ही सिर्फ जताने को जो नज़रें हटा लेती हो तुम,
क्यूँ अपनी नज़रों को नहीं समझाती मुझे ताकना छोड़ दे.


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मोहब्बत के उस मौसम की मुझमे वही चहक आज भी है,
तुम्हारे दिए गुलाब पर तुम्हारे हाथों की महक आज भी है.


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अबके जो मिले मुझसे काला चश्मा पहन कर आना,
मैं जुबाँ पर नहीं आँखों की बातों पर यकीन करता हूँ.


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मुझे तो ये अहसास ही न था तुमसे मिलने से पहले कभी,
के तमाम रंज़-ओ-गम के साथ बारिश में भीगना क्या होता है.


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बरसों पहले की बात है, मेले में देखा था उसे,
उम्र के सात दशक बाद भी वैसा मेला नहीं देखा.


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उसकी मुलाकातें-बातें-यादें सबने खूब संभाला मुझे,
आज बैसाखियाँ कोशिश करती है उसकी जगह लेने की.


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ये जो बरसात का पानी अपनी ही रवानी में है,
इसका एक किस्सा मेरी भी कहानी में है,
इक शख्सियत थी जो अब नहीं है हिस्से में मेरे,
कही न कही अब भी शामिल मेरी जवानी में हैं.

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