Sunday, October 27, 2013

..जैसे कोई नया मौसम दस्तक दे रहा है

कंटीली राह पर अब दूब का साम्राज्य है,
संदूक में रखा कंगन अब खनक दे रहा है,
फिजाएं भी अब बदलती सी लगने लगी है,
जैसे कोई नया मौसम दस्तक दे रहा है...

जिस  तन्हाई को अपनी चादर था समझे मैं,
कोई छीन के मुझ से मेरी कसर ले रहा है,
अब तक जो ख़्वाब ख़्वाबों में भी न था,
अभी-अभी आँखों पर अपना असर दे रहा है...

पहुँच ना थी मेरी ऊँची जिस कलि तक,
डाल को उसकी खुद पेड़ लचक दे रहा है,
पहले तो फकत कभी ऐसा न हुआ था,
इक फूल सबसे ज्यादा महक दे रहा है...

मंदिर में कभी अपने लिए कुछ माँगा नहीं,
ईश्वर खुद ही क्यूँ मुझे मन्नत दे रहा है,
मेरी राह उसने कहाँ से कहाँ बना दी,
बिन मांगे क्यूँ मुझे ज़न्नत दे रहा है...

No comments:

Post a Comment