Sunday, October 27, 2013

अभी अभी कुछ जीता हूँ पर...

अभी अभी कुछ जीता हूँ पर
जीतने का सा आभास नहीं होता,
फितरत अभी भी कुछ बाकी है
सुकून का अहसास नहीं होता।

मंदिर जाऊं मैं अगर तो
किसी और के लिए दुआ कर आता हूँ,
जो जाऊं अपने ही घर तो
सवालों का कुआँ बन जाता हूँ।

कभी पूछो मेरी किताबों से
क्यूं आजकल उनसे किनारा किये हूँ,
गहरा नशा सा है घेरे जैसे
कोई पुरानी शराब पीये हूँ।

आखिर ये कौनसी खलिश है
जो मुझमे बाकी रह गयी है,
आखिर ये कौनसी कशिश है
जो मुझे बागी कर गयी है।

ऐ मेरे हमदर्द दोस्तों
अपने हिस्से का फ़र्ज़ अदा कर दो,
मेरी उलझनें सुलझा कर तुम
मुझे फिर से जिंदा कर दो।

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