Thursday, January 9, 2014

शेर-ओ-शायरी (भाग-2)

वफ़ा का ताबीज़ इस गले में अब भी लटका है,
कुछ अल्फाजों का पुलिंदा हलक में अब भी अटका है।

===========================

अब होली में बचपन वाली शोखी नहीं बची,
परदेसी रंगों ने इसमें अगल़ात घोल दी है।

(शोखी = चंचलता; अगल़ात = अशुद्धियाँ)

===========================

सफ़र-ऐ-मुहब्बत में अब जलजलों से आजमाईश नहीं की जाती,
जिद का वो दौर और था, समझौतों का ये दौर और है।

===========================

ये किसे तुम शेर सुनाते हो मुहब्बतों के 'आनन्द',
बाशिंदे ये 'मौका-परस्ती' की पाठशालाओं से निकले हैं।

===========================

उसूल-आदर्श-इंसानियत के वो किस्से अब हवा हुए,
यही तल्ख़ हकीकत है बच्चे ये 'सिर्फ उम्र से' जवाँ हुए..

===========================

आज भी कुछ चूल्हे नहीं जले, कुछ पेट नहीं पले,
आज भी कही मकान ऊंचे हुए, कही ईमान नीचे हुए।

===========================

सैलाब-ऐ-इश्क में जूनून की कश्ती संभालूं कैसे,
इन मदहोश हवाओं में होश में आऊँ कैसे,
तुम्हारे चाहत के इस समंदर में खोया हुआ,
ऐ जलपरी तुम्हे तलाश के मैं चुराऊं कैसे..

===========================

आज़ाद उड़ती तितलियों सी ये यादें तुम्हारी,
महकते ताज़े गुलाबों सी ये बातें तुम्हारी,
अपनी दुनिया के सभी आईनों से पूछ लेना,
कितनी हसीन होती है ये मुलाकातें तुम्हारी..

===========================

महफ़िलों में जिंदादिली के रंग भरिए,
उदास चेहरों पे आशाओं की उमंग भरिए,
कल तुम्हारा भी सफ़र ख़त्म हो जाएगा,
याद आओ सबको ऐसा 'संग' भरिए

No comments:

Post a Comment