Sunday, October 27, 2013

ना जाने कौनसे समाजों की बुनियाद बनाने निकले थे...

ना जाने कौनसे समाजों की बुनियाद बनाने निकले थे,
हम आने वाली किन पीढ़ियों को बसाने निकले थे,
हर इक मकां इस बस्ती में जो मगरूर खुदी में है,
बहुत तैश में है, ना जाने हम कौनसी सदी में है

वो घर फरेब में घायल-जिगर-इंसां का है,
ये घर नतीजा-ऐ-नापाक-किसी-इन्साफ का है,
नुक्कड़ की वो दुकान जो लुटी है बस अभी-अभी,
वो सबूत हमारी नफरतों में मर चुके गिलाफ का है

इस गाँव में मन-भावन मेले छाये रहते थे,
रंगों के वो मौसम बारहमासी आये रहते थे,
ये जो मातम है आज चारों ओर छाया हुआ,
कल तक यहाँ बच्चों के लिए खिलौने बिकते थे

ऐ फितरत-ऐ-इंसां ज़रा ठहर के फिर से सोच,
कल की तरह बीत रही है पहर, बीत रहा है रोज,
तुम्हारी ही कौमें मर-मिट रही है, देख चारों ओर,
क्या देगा अगली पीढ़ी को तू, क्या है तेरी खोज

ये जहां नहीं, इक प्यारा चमन है मालिक का,
तुम्हे ये किसने हक दिया बाकि फूल मिटाने का,
क्या तुम्हारी बगिया के फूल भी रंजीशें खेलते हैं,
क्या वो भी अस्तित्व के द्वंद्व में जख्म झेलते हैं

निकल उस राह पर जो तेरा इन्तज़ार कर रही है,
बदल दे ये कहानी कि अब तेरी घड़ियाँ कम रही है,
त्याग दे वो तालीम जिसमें प्यार के बोल नहीं है,
देख तेरी बगिया भी तुझसे यही सब बोल रही है

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