Saturday, October 21, 2017

पुस्तक समीक्षा : Men are from Mars Women are from Venus

..और John Gray की पुस्तक Men are from Mars, Women are from Venus समाप्त की। मैंने पुरुष और स्त्री के आपसी तालमेल और सम्प्रेषण पर इससे पहले कोई पुस्तक नहीं पढ़ी थी। यह पुस्तक बाहर से बेहद आकर्षक और ललचाती-सी होने के साथ-साथ काफी चर्चित भी है। इसके बारे में शायद ही कोई पुस्तक प्रेमी अनजान हो। लेकिन बावजूद इन सब सकारात्मक पहलुओं के, यह पुस्तक निरी ढेर सारी गैर-जरूरी सामग्री के शब्दों का पहाड़ ही है। मेरे शब्द इस समीक्षा-आलेख में कुछ कड़वे हो सकते हैं किन्तु यह मेरे इसे पढ़ने पर हुई अनुभूति के हूबहू उकेरे जाने के कारण बिना किसी प्रभाव या लाग-लपेट के होने से ऐसे हैं। यह पुस्तक दरअसल अलग कुछ भी नहीं कहती जो आप नहीं जानते। अगर दिल की बात खुल के हूबहू कह दूँ तो मैं साफ-साफ कहूंगा कि खुद मेरे पुस्तक-संग्रह में यह पुस्तक अब तक की सबसे नीरस पुस्तक रही, बल्कि 'कुछ भी परोसकर' इसने चेतन भगत की पुस्तकों को भी मात दी है।

पुस्तक के शुरू के कुछ पेजेज़ यह बताते हैं कि पुरुष असल में मंगल का वासी है और स्त्री शुक्र की वासी। दोनों अपने-अपने ग्रहों पे अपने-अपने नियम और कायदों के साथ खुशी-खुशी रहते हैं। फिर एक दिन पुरुष शुक्र खोज लेते हैं और एक यान से वहाँ पहुंचते हैं। दोनों के मन और दिल एकदम से हिचकोले खाते हैं। फिर दोनों पृथ्वी पर आते हैं। इसके बाद से अब तक पुरुष अपने मंगल ग्रह के नियम से ही स्त्री के विचारों का विश्लेषण करता है जबकि स्त्री इसी तरह अपने शुक्र ग्रह के नियमों के अनुसार। यहाँ तक भी यदि लेखक की अपनी बनाई यह थ्योरी इसलिए मान लेते हैं कि पुरुष और स्त्री वास्तव में एकदम अलग-अलग तरह से सोचते हैं, तब भी लेखक इसके बाद इतने भ्रामक, अस्वाभाविक, असामान्य और अविश्वसनीय नियम लागू करने को कहता है कि जो रिश्ता मज़बूत करने कि बजाय व्यावहारिक रूप में इसे कमज़ोर कर सकते हैं।

कईं दफे स्त्री से तो पुरुष को ज्यादा स्वायत्तता और अहमियत दी गई है जो इस पुस्तक की महिला पाठकों को साफ-साफ दिखाई देंगी। इसके अलावा शुरू के ही एक चैप्टर में बताया गया है कि यदि पुरुष को ठेस पहुंचती है या वह नाखुश है तो वह अपने प्राचीन मंगल निवास के समय अनुसार अपनी गुफा में चला जाएगा और उस समय स्त्री उसे न मनाए न ही समस्या पर बात करे। इसके बजाय उसे उसके हाल पे अकेला छोड़ दें। वह शॉपिंग पे जा सकती है या टीवी देख सकती है। पुरुष स्वतः अपनी समस्या पर मानसिक विश्लेषण कर जब हल निकाल लेगा तब वह अपनी गुफा से निकल आएगा और सामान्य व्यवहार करने लगेगा। ऐसे में रिश्ता मज़बूत होगा कि कमज़ोर? इस तरह से भ्रामक सिद्धांतों और अनोखी कल्पना पर आधारित निष्कर्ष व्यवहार में प्रयोग करने से अत्यंत नाजुक इस रिश्ते पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के भी अत्यधिक आसार बनते हैं।

इस पुस्तक में जो भी कुछ है वह शुरू के चंद पेज में ही मिल जाएगा, उसके बाद वहीं बातें, वहीं नियम-सिद्धांत जो अपनाने को लेखक कहता है, समूची पुस्तक में उन्हें बार-बार, फिर बार-बार और फिर बार-बार नए-नए तरीकों से एवं नए-नए शब्दों के जरिए पुनरावृत्ति कर सिर्फ पुस्तक में पृष्ठ संख्या बढ़ाई गई है। पढ़ते-पढ़ते दिमाग ऊँघने लगता है कि यहीं बात और कितनी बार पढ़ने को मिलेगी। आधी पुस्तक होने तक आप पुस्तक को रख देना चाहेंगे। दरअसल इसे पुस्तक के रूप में बनाया गया है जबकि ये नियम किसी अखबार में आने वाले साप्ताहिक रंगीन पारिवारिक परिशिष्ट में छपने वाले एक छोटे-से कॉलमरूपी आलेख में समाहित हो सकने जितनी सामग्री का ही अति-विस्तारित रूप है, बस।

दुनिया में कुछ पुस्तकें सबसे ज्यादा बिकती है। वे ज्यादातर धार्मिक ग्रंथ होते हैं और बाईबल का नाम उनमें सबसे ऊपर आता है। कुछ पुस्तकें उनकी रेटिंग को देखते हुए सबसे ज्यादा खरीदी जानी चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं हैं। वे महान साहित्यकारों की कृतियाँ होती है जिन्हें आम नागरिक पूरी तरह समझ और सराह नहीं पाता। मसलन शेक्सपियर का लेखन। कुछ पुस्तकें बेहद बिकती हैं और एक-दूसरे को गिफ्ट की जाती है या सलाह के तौर पे बताई भी जाती हैं कि इसे पढ़ो। वे वास्तव में शानदार होती हैं। मसलन How to Win Friends and Influence People, महान लोगों की जीवनियां वगैरह। इसके बाद कुछ पुस्तकें ऐसी भी होती हैं जो सबसे ज्यादा चर्चित होती हैं, इसलिए बिकती भी हैं, किन्तु उनके भीतर कुछ भी नहीं होता। वे चर्चित होती हैं उनके आकर्षण के लिए जिस पर सारा जोर दिया गया होता है, बजाय कि लेखन पे। ऐसी ही एक आकर्षक पुस्तक है John Gray की 'Men are from Mars, Women are from Venus'.

Monday, September 25, 2017

पुस्तक समीक्षा : गबन

..और हिंदी साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की पुस्तक 'गबन' समाप्त की। गोदान में जहाँ ग्रामीण कृषक जीवन के विभिन्न रंगों को देखने का मौका मिलता है वहीं गबन आपको भारतीय मध्यम परिवार के रंग दिखाती है। यहाँ भी दुःख-दर्द के बीच मानव जीवन में गहरी जड़ें पसारे लालसाओं और भ्रष्ट आचारों के बादल बार-बार बरसते दिखाई पड़ते हैं जिनके कारण जीवन की सरलता और सौम्यता लगातार प्रभावित होती है और यह निम्न स्तर को गिरती चली जाती है।

मूल रूप से यह स्त्री के आभूषण प्रेम की लालसाओं को केंद्र में रखती गाथा है जो परिवार के सर्वनाश की ओर बढ़ती चली जाती है। इसके अलावा भ्रष्टाचार के बद से बदतर रूप, बीमारी का धीमा जहर और इसकी प्रचंडता वाली काली रात और अपने अस्तित्त्व को साबित करता तो कभी नकारता 'प्रेम' तत्त्व भी इस गाथा को बराबर प्रभावित करते रहते हैं। किरदारों को तो इतनी सूक्ष्म मीनाकारी से गढ़ा गया है कि मुझे नहीं लगता अंग्रेजी साहित्य में भी कहीं ऐसी बारीकियां देखने को मिलती हो। यह उपन्यास भी मानवीय संवेदनाओं का एक खास म्यूजियम है जहाँ कोई जीवन के उन तमाम अहसासों को उन तमाम भावों को जीता जाता है, जो हमारे दैनिक यथार्थ जीवन में हम अक्सर देखते महसूस करते रहते हैं।

इसे इसलिए पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम हमारे जीवन मे उन समस्त लालसाओं को एक तीसरे पक्षकार की नज़र से देख सकें, जो हमारी मानसिक सोच को निम्न स्तर की ओर धकेल रहीं हैं और जिसके फलस्वरूप हमारे रिश्ते और फिर हमारा जीवन और इसकी दीर्घकालिक खुशियाँ भी धीरे-धीरे रंगहीन होने को अग्रसर हो रहे हैं। यह इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि कभी-कभी रिश्तों में हम कुछ जरूरी संवादों को इसलिए करने से रह जाते हैं कि उससे कहीं सामने वाला अपना बुरा न मान जाए और केवल इसलिए हम चुप्पी कर लेते हैं। यहीं चुप्पी आगे चलकर दीर्घ दुष्परिणाम से हमारा स्वागत करती है। कुल मिलाकर हिंदी साहित्य जगत का एक बेहद संवेदनशील और अनमोल उपन्यास है 'गबन'।

Thursday, September 14, 2017

14 सितंबर : हिंदी दिवस

इस विश्व में ठौर-ठौर पे अलग-अलग भाषाएँ हैं।
मैंने फिर भी, हिंदी जैसी सुन्दर भाषा कहीं नहीं देखी।
सबसे खास बात, यह बिंदी लगाती है। हिंदी में से बिंदी निकाल लो तो हिंदी, 'हिंदी' नहीं रहेगी। 14 सितंबर, 1953 से प्रतिवर्ष यह दिन हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। 14 सितंबर व्यौहार राजेन्द्र सिंह का जन्मदिवस भी है जिन्होंने हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने की दिशा में अथक प्रयास किया।

हमारे देश में अंग्रेजी के पाठक 15 प्रतिशत से भी कम हैं, लेकिन अंग्रेजी अख़बार में विज्ञापन देना हिंदी अख़बार के मुकाबले कहीं ज्यादा महंगा है। लगभग हर माध्यम में विज्ञापन आंशिक या पूर्ण रूप से अंग्रेजी में परोसा जाने लगा है। लगभग हर उत्पाद की पैकेजिंग अंग्रेजी में पोती हुई मिलती है। लगभग हर दुकान, हर ऑफिस की होर्डिंग अंग्रेजी में लगी मिलती है। कुल मिलाकर अपने ही देश में हिंदी को अंग्रेजी के सामने निचले दर्जे की भाषा हम सब ने अपने व्यवहार में साबित कर दिया है लेकिन यह जानना भी आश्चर्य होगा कि यहीं भाषा फ़िजी, मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम, नेपाल में भी बोली जाती है। फ़िजी में तो इसे आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा प्राप्त है। फिर न जाने क्यूं हम इसे अंग्रेजी के सामने हीन बना देते हैं।

मुझे वे दिन याद है जब नजदीक के एक शहर में जब मेरी नौकरी लगी थी और मैं ट्रेन से घर और ऑफिस के बीच साप्ताहिक यात्राएँ किया करता था, हिंदी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार तब मैं बड़े ही असहनीय और निराश मन से अक्सर देखता था। ऐसे ही एक वाक़या मुझे याद आता है। मैं उस दिन ट्रेन के प्लेटफॉर्म को अलविदा करने के उन आखिरी पलों में, अपनी टिकट और बैग के साथ किसी तरह साधारण श्रेणी की बोगी में घुसकर सांस मात्र ले रही अच्छी-खासी भीड़ का हिस्सा हो सका। जाहिर है अगले किसी स्टॉप से पहले तो सीट मिलना नामुमकिन ही था। सफर खड़े-खड़े झेलना था। मेरे ठीक बायीं ओर एक 20-22 साल का नौजवान बड़ी ही बेबाकी, तसल्ली और मुस्कुराहट के साथ अपने फोन पे अपनी गर्लफ्रैंड के साथ गपशप में सफर काट रहा था। अगले डेढ़ घंटे मुझे खड़े-खड़े सफर ने नही, उसके फोन ने नहीं, उसकी बातों ने नहीं, बल्कि उसकी अंग्रेजी ने अधमरा कर दिया। उसे हिंदी आती थी मगर जिस जबरदस्ती से वह अंग्रेजी का 'उत्सर्जन' कर रहा था, मेरा मानना है कि दुनिया का कोई भी अंग्रेजी का शिक्षक उसे अंग्रेजी नहीं सीखा सकता। उसकी वोकेबुलरी बहुत ही सीमित थी और वो उन्हीं सीमित शब्दों से बड़ी ही निर्ममता और जबरदस्ती से अंग्रेजी घिस रहा था। खैर, रोज रोज की भागदौड़ में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं लेकिन मैं मुख्य विषय पर आता हूँ- एक विदेशी भाषा को आखिर क्यूं इतनी अहमियत देना चाहते हैं हम? क्या व्यक्तिगत विकास हिंदी में संभव ही नहीं? क्या हिंदी के बजाय अंग्रेजी में बात करने से आपकी क्लास ऊंचे दर्जे की हो जाती है? क्या अंग्रेजी में हिंदी से अधिक व्यापकता, सभ्यता, तमाम तरह के भाव और रसों का पुट है?

कम से कम मैं तो ये नहीं मानता। भारत देश का साहित्य जगत कितने ही भारतीय अंग्रेजीदा साहित्यकारों को एक पलड़े में बिठाकर तौल लो, दूसरे पलड़े में अकेले मुंशी प्रेमचंद के आगे हल्का है। भारत देश के तमाम अंग्रेजीदा राजनेताओं के समस्त अंग्रेजी उवाचों को एक पलड़े में एक साथ तौल लो, हिन्दीभाषी अकेले अटल बिहारी वाजपेयी के उवाचों के आगे वह पलड़ा हल्का है। भारत देश के तमाम अंग्रेजीदा फिल्मी अदाकारों के समस्त इंटरव्यू मय उनकी हर स्पीच एक पलड़े में रखकर तौल लो, किन्तु दूसरे पलड़े में अकेले हिंदी-वक्ता अमिताभ बच्चन के स्पीच भारी ही पड़ेंगे। यह वे चेहरे हैं जो इन तमाम मिथकों पर रौशनी डालते हैं और इन्हें झुठलाते हैं कि हिंदी कोई दूसरे या तीसरे दर्जे की भाषा हो। ये चेहरे यह साबित करते हैं कि व्यक्तिगत विकास के नाम पे ये किसी विदेशी भाषा पर भरोसा नहीं करते। समाज में असली उच्च दर्जा क्या होता है यह हमें कोई विदेशी भाषा नहीं दिखा सकती।

इतना अवश्य है कि हमें अन्य भाषाओं का ज्ञान भी होना चाहिए। और हिंदी तो हमारी अपनी भाषा है। एक बाहरी भाषा को यदि हम नया समझ कर उसे अपनाने को विकसित हो जाने की ओर बढ़ने का कदम मानने लगे जाएं तो मैं कहूंगा यह हमारी अर्धविकसित सोच का बौनापन और ओछापन है। उड़ता तो पक्षी भी है लेकिन शाम को उसे अपने घोंसले में आना याद होता है। हिंदी ही हमारा घोंसला है हमारा असली घर है। उसके बाद दूसरे, तीसरे, चौथे नम्बर पर हम और जितनी मर्जी भाषाएँ सीखें। तब जाकर जो ज्ञान अर्जित होता है वह है असली व्यक्तिगत विकास। अपनी ही भाषा को दुत्कार कर दूसरी भाषा अपना लेना व्यक्तिगत विकास नहीं व्यक्तिगत ह्रास कहलाता है। इसलिए जब जरूरत हो, समय व उद्देश्य की माँग हो, तभी अंग्रेजी का प्रयोग कीजिए। इसके अलावा जहां तक संभव हो हिंदी का प्रयोग कीजिए। इसे और सीखिए। इसका स्वाद चखिए। इससे प्यार कीजिए। इस पर गर्व करिए। इसके एवज में यह जितना कुछ आपको देगी कोई और भाषा नहीं दे सकेगी।

(आलेख 'गूगल हिंदी इनपुट' एंड्रॉइड एप मय टूल की मदद से हिंदी में लिखा गया है)

Friday, September 8, 2017

अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस

8 सितंबर यानी अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस..

भारत जैसे देश में जहाँ बाबाओं, ज्योतिष-तंत्र-मंत्र-यंत्र और धर्मान्धता की बीमारी जरूरत से कहीं अधिक फैल रखी है, इस दिवस की अहमियत कहीं ज्यादा है। इसे प्रमुखता से विज्ञापित किया जाना चाहिए। हालांकि सरकारें ये काम कभी नहीं करने वाली। यहाँ निरक्षर तो निरक्षर हैं ही है, अधिकांश साक्षर भी केवल डिग्री के साक्षर हैं। कईं बार तो वे निरक्षरों को भी मात देते हैं। एक खास उदाहरण रखूं तो वह होगा वाट्सएप्प का मिस-यूज। मेरे ख्याल से पूरे विश्व में वाट्सएप्प का इस्तेमाल 'अफवाहें फैलाने के मामले में' सबसे ज्यादा हमारे ही देश में होता होगा। और ये काम हमारे साक्षर बुद्धिजीवी पूरे आन-बान-शान से करते हैं। गूगल नाम के औजार का प्रयोग करना तक नहीं सोचते और तुरंत आया हुआ मैसेज आगे सबको ब्रॉडकास्ट! दरअसल ये भी कुछ कुछ टीआरपी वाला खेल ही है। सबसे पहले ब्रेकिंग न्यूज परोसने की कड़ी में वाट्सएप्प के जरिए हम पढ़े-लिखे भी न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज बन बैठे हैं। कहीं हिन्दू धर्म खतरे में हैं, कहीं कोई भगवान इतने खतरे में हैं कि उनके धाम से आया संदेश आगे 10 लोगों को न भेजा तो वे मेरे साथ बहुत ही बुरा करेंगे, कहीं 5 बरस पहले गुम हुआ बच्चा जो आज किसी नौकरी में लगा हुआ है और भारतभर में उसे आज भी व्हाट्सएप्प पे पूरी तन्मयता से ढूंढा जा रहा है, कहीं किसी फिल्मस्टार की फ़िल्म का सिर्फ इसलिए बहिस्कार करना है कि उनका कोई बयान किसी पार्टी या धर्म विशेष के लोगों को बुरा लगा इसलिए अब इसे देशव्यापी मुद्दा बना डालना है, यहीं हिंदुस्तान की सबसे बड़ी समस्या है। बाकी समस्याएँ तो चलती रहेगी।

दूसरी ओर बाबाओं की लीला और उनके अनुयायियों पर तो अब कुछ लिखना शेष रहा ही कहाँ हैं। तीसरी ओर ज्योतिष, तंत्र-मंत्र-यंत्र का इस देश में खास स्थान है और ये सदा रहेगा भी। बेरोजगारी की ऊंची दर, ऊल-जलूल व गैर-जरूरी सांस्कृतिक रीति-रिवाज और गिरता जीवन-स्तर इसे सदा पोषण देने का काम करता रहेगा। इस देश से महान दार्शनिक, लेखक और लीडर निकले हैं किंतु जीवन के कष्टों से तुरंत निजात पाने के लिए बस येन-केन-प्रकारेण जादू-टोना, मंत्र-ज्योतिष कैसा भी सहारा लेकर छुटकारा पाओ। जीवन की पहेली को शायद सम्पूर्ण दुनिया में इन्हीं लोगो ने समझा और सुलझाया है। साक्षर लोगों की तादाद इनमें कोई कम नहीं हैं।

ऐसे अनगिनत उदाहरण 'अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस' की हमारे देश मे अहमियत को दर्शाते हैं। यहाँ विज्ञान होते होए भी जैसे नगण्य है। महान आदर्शों के इस देश में सही मायने में साक्षर लोग बहुत कम हैं। ऐसे लोग विरले ही देखने को मिलते हैं।

इसलिए जरूरत है एक अरसे से रुके देश को आगे बढ़ने में धक्का लगाने की। आँखें मलिए, इन्हें उगते सूरज को देखने दीजिए। हवाओं को पहचानने दीजिए। तमाम चश्मे एक तरफ उतार के रख दीजिए। तमाम कुहरों से अपने मन-मस्तिष्क को आज़ाद कर दीजिए। खतरे में कोई और नहीं, आपकी स्वतंत्र सोच की शक्ति है जो किन्हीं बाहरी शक्तियों के नियंत्रण में हैं। सही मायने में सभ्य बनिए, समझदार बनिए। हर दिशा को देखिए और हर विचार का सम्मान कीजिए। विकसित राष्ट्रों के जन से सीखिए। वे लोग विकसित हैं क्यूंकि वे हमारी तरह ऊल-जलूल समस्याओं में अपने मन की साक्षरता खर्च नहीं करते। अर्थपूर्ण फिल्में देखिए, अर्थपूर्ण पुस्तकें पढ़िए, समाज में चरित्रवान सज्जनों के सान्निध्य में रहिए, विज्ञान में कुछ रुचि रखिए, ब्रेकिंग न्यूज़ से दूरी बनाइए, अपने बच्चों को समय दीजिए, अपने गुरुओं से दोबारा मुलाकात कीजिए, अपने बड़ों से उनके समय की गाथाएँ सुनिए, इतिहास पढ़िए, टीवी से दूरी बनाइए, कभी-कभी संभव हो तो खुद के लिए कुछ लिखिए, पेड़-पौधों या पशु-पक्षियों से रूबरू होइए। आपकी असल दुनिया को सिर्फ ये चीजें खुशनुमा बना सकती हैं। आज के युग में अक्षर के साक्षर तो बनना ही है, बुद्धि के साक्षर भी बनिये। दूसरों के विचार पढ़िए किन्तु अपने स्वतंत्र विचार भी खुद सृजित कीजिए। तब आप भी सही मायने में साक्षरता के पैरोकार होंगे।

Monday, September 4, 2017

पुस्तक समीक्षा : विवेकानंद - जीवन के अनजाने सच

..और मणि शंकर मुखर्जी की 'विवेकानंद: जीवन के अनजाने सच' समाप्त की। अधिकांश जगहों पर किस्सों को समझने में दिक्कतें आती है क्योंकि लेखक ने पूर्ण स्पष्टीकरण नहीं दिया और शब्दों की कमी खलती है। शुरू से अंत तक यह एक लय में भी नही चलती जो बार-बार हमें भी लय से धकेलती रहती हैं। इसके बजाय यह पुस्तक समय रेखा पर कभी पीछे तो कभी बहुत आगे चलते हुए लगातार सक्रियता दिखाती है और हमें खुद ध्यान से तालमेल बिठाना पड़ता है। लेकिन क्यूँकि यह एक कहानी न होकर विभिन्न अनजाने किस्सों का संकलन है, इसलिए इसका ऐसा होना जायज है।

यह छोटा-सा ग्रंथ है जिसमें भीतर समस्त संकलन पाँच अध्याय/शीर्षकों में विभक्त है और जो वाकई नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानंद) के जीवन के तमाम अनजाने पहलुओं से रूबरू करवाता है। यह दिखाता है कि वे वाकई कितने सक्रिय थे और उन्होंने क्या-क्या दिन देखे थे। एक ओर जीवन की अंतिम घड़ी तक पारिवारिक मुकदमे जिनमे अच्छे-खासे परिवार की जमा-पूंजी ही खत्म हो चुकी होती है, वहीं दूसरी ओर सन्यास ग्रहण कर निकले बड़े बेटे की अनगिनत बीमारियाँ और गृह-चिंता। एक ओर अधिकांश भाई-बहनों की अकाल मृत्यु तो दूसरी ओर माँ की चिंता में गमगीन मानस के साथ उनका विश्व-पथिक बन विश्व में भारतवर्ष के परचम की पताका फहराना। एक महान सन्यासी के उनतालीस वर्ष, पाँच महीने और चौबीस दिनों की कठिनतम, बेहद मार्मिक और हृदयस्पर्शी यात्रा के विभिन्न पहलुओं का संकलन है यह पुस्तक।

इसे इसलिए पढ़िए कि आप जान सकें कि कौन थे विवेकानंद, कितने कठिन रास्ते पर चले थे विवेकानंद, यह जानने के लिए पढ़िए कि कैसे एक सन्यासी, सन्यास में भी अपनी माँ को नही त्याग पाया और उसने सन्यास को उसकी सही परिभाषा उदाहरण के साथ प्रस्तुत की, उस समय की धार का अनुभव लेने के लिए पढ़िए और पढ़िए तमाम उन बातों को जो विवेकानंद पर लिखी किसी और पुस्तक में विरले ही मिल सके।

Thursday, August 17, 2017

पुस्तक समीक्षा : इश्क़ में शहर होना

..और रविश कुमार की 'इश्क़ में शहर होना' समाप्त की। हिन्दी भाषा में भी प्रयोग की एक प्रयोगशाला लगी - इश्क़ में शहर होना। दरअसल फेसबुक पर लिखे स्टेटस से लगने वाले अहसासों को उतारकर करीब 90 नन्ही-नन्ही कहानियों, बल्कि कहानी भी कुछ बड़ी होती ही है इसलिए कहना चाहिए इन्हीं करीब 90 नन्हे-नन्हे अहसासों को अपनी ही अलग लेखन शैली में न्यूनतम शब्दों में जोड़कर एक नन्ही पुस्तक का सृजन किया है जो फेसबुक फिक्शन श्रृंखला का एक हिस्सा है। इस श्रृंखला को 'लप्रेक' नाम दिया गया है यानी लघु-प्रेम-कथा।

पुस्तक में लेखन शैली तो बेहद पसंद आई लेकिन मूल रूप से यह दिल्ली के भीतर इसके विभिन्न कोनों और प्रसिद्ध स्मारकों एवं हिस्सों पर प्रस्फुटित होते प्रेम-प्रसंगों के छोटे-छोटे कैनवास उकेरती हैं और किसी बाहरी निवासी या यों कहें किसी ऐसे शख़्स जो दिल्ली से रूबरू न हो, के लिए यह बेहद कठिन हो जाती है क्योंकि इस कैनवास के रंग उसकी समझ से कुछ पर हो जाते हैं। यानी यह पुस्तक मुख्य रूप से एक दिल्लीवासी के लिए है। हाँ, दिल्ली जो इस पुस्तक में है वो उन तमाम दिल्लीओं से अलग है जो अन्य लेखकों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में दिखाई है, किन्तु फिर भी यह दिल्ली सिर्फ कल्पना न होकर वाकई वैसी है जैसी असल दिल्ली है।

कहानियों में शब्दों की माँग कुछ और थी और जो लेखक ने शायद इसलिए कम रखी क्यूँकि यह कहानियाँ न होकर अहसास मात्र थे। हर अहसास के साथ विक्रम नायक की चित्रकारी उसे कुछ और गहराई देने की अच्छी कोशिश लगी। पुस्तक के प्रारंभ में प्रस्तावना के तौर पर दिया गया 'शहर का किताब बनना' किसी भी कहानी (अहसास) से ज्यादा अच्छा लगा। आपको पढ़ने के लिए कहना तभी चाहूँगा गर आप दिल्लीवासी हों।

Tuesday, August 15, 2017

पुस्तक समीक्षा : गोदान

..और प्रेमचंद की 'गोदान' समाप्त की। अब तक यों लगा सुनील दत्त, नरगिस, राज कुमार स्टारर 'मदर इंडिया' से बेहतर और दर्दभरी गाथा भारतीय कृषक समाज के संदर्भ में कोई और नहीं, किन्तु एक अरसे से प्रेमचंद की गोदान पढ़ने की इच्छा प्रबल थी और जो कहानी में गोता खाया तो न निकलने की इच्छा हुई न इसने ही निकलने दिया। एक ऐसी गाथा जिसमें हर किरदार बड़ी ही गहराई से उकेरा हुआ मालूम हुआ।


हालांकि इस गाथा में कुछ बातें विशेष थी। पहली तो यह कि इसमें किसी भी किरदार के बारे में शत प्रतिशत यह नही कहा जा सकता कि वह आदर्श या अपराधी, हीरो या विलेन था। एक किरदार कब अपराधी होता है और कब हालात की चोटों से आदर्श बन जाता है यह वाकई सजीव चित्रण-सा उकेरा गया है और पढ़ते ही बनता है। दूसरी बात, पुस्तक के कवर पर सार में यह कहानी होरी पर केंद्रित बताई गई है जबकि मैं इससे असहमत हूँ। इसमें हर किरदार का इतना गहरा असर है कि उसे कमतर नहीं समझा जा सकता। तीसरी बात, ग्रामीण कृषक जीवन की बेहद गहरी कहानी होकर भी यह उतनी ही शहरी दार्शनिक, अखबार संपादक, व्यवसायी, राजनेता और नवयुगीन शहरी नारी की भी गाथा है क्योंकि इसमें उन सबके आचार-विचार तमाम कुंठाओं, लोभ-लालच और हृदय-परिवर्तन सहित समाहित है। चौथी बात यह कि तत्कालीन प्राचीन समय की होकर भी यह गाथा हममें से हर-एक के जीवन को बराबर छूती हुई वर्तमान परिवेश में भी तर्कसंगत हैं और मार्मिक-धार्मिक-चार्मिक किसी भी रूप में आज के भारतीय समाज की भी आईना ही है।


इसे पढ़ने वाले इसे केवल मनोरंजन के लिए पढ़ना चाहे तो यह इस गाथा के लिए अन्याय होगा। यह इसलिए पढ़ी जानी चाहिए कि हम स्वयं को इस आईने में खोजने का प्रयत्न करें और जैसा देख सकते हैं उसे वैसा ही स्वीकार करें। और हाँ, साहित्य के नाम पर साहित्य के अलावा 'सब-कुछ' परोसने वाले और युवा-मन पर छाए आज के चेतन भगत, दुरजोय दत्ता और रविंदर सिंह सरीखे लेखकों के फैन्स को ये पुस्तक नहीं पढ़नी चाहिए, यह उनके लिए सही पुस्तक नहीं हैं और वे केवल निराश ही होंगे।

Tuesday, July 25, 2017

चले थे जो...

चले थे जो निकल के
घर से कॉलेज की ओर,
क्या सुहाना सफर था
थी क्या सुहानी भोर..

अरमानों की गठरियाँ
और मन की कच्ची डोर,
आज़ादी का मौसम
और रॉक संगीत का शोर..

सिलेबस के काले बदरा
और दोस्तों का मौसम,
रातों के हम जुगनू
जग लगता हमसे रौशन..

जब निकले कॉलेज से
तो सिर्फ डिग्री थी पास,
न मिला सुहाना सफर
न आई भोर कोई रास..

एक-एक कर खो गई
गठरियाँ सब अरमानों की,
बेड़ियों में जकड़ गयी
आज़ादी हम दीवानों की..

धज्जियाँ उड़ चुकी थी
रॉक संगीत की ऐसे,
सुरूर घुटनों पे आ
हो जाए तिश्नगी जैसे..

ज़िन्दगी खुद अब
रोज का सिलेबस हो गई,
दोस्ती की किताब
पिछले बरस का कोर्स हो गई..

जुगनुओं वाली रातें
हसीं कल का ख्वाब हो गई,
जग तो खुद है रौशन
हमारी रौशनी कही खो गई..

जीवन की कठोरता का
तब पहला अहसास हुआ,
बनावटी दुनिया का
असल एग्ज़ाम तब पास हुआ..

इक ऐसा दौर था वो
जूझते-हारते चलते रहे,
रुकते-गिरते तो कभी थमते
और खाली हाथ मलते रहे

किन्तु अपनी धुन के
हम भी जिद्दी शेर थे
हालात चाहे कठिन रहे
हम लेकिन दिलेर थे

मुसीबतों को अपना मान
एक-एक कर झेलते रहे,
आखिर हैं तो ये अपने ही
इसलिए दुःखों से खेलते रहे

उगते सूरज के साथ
मन के सब ख्वाब जोड़े
ढलती सांझ के साथ
जड़ सब दुःस्वप्न तोड़े

और फिर इक दिन
सफलता की कोंपलें फूटी
महक उठी मन की गलियाँ
बेबसी की बस्ती छूटी

इतना सब हो गुजरा
तब जाकर यह ज्ञान हुआ
मेहनत और जुनून की
ताकत का ध्यान हुआ

बेड़ियाँ भी हम ही हैं
और हम ही सुहानी भोर
कच्ची डोर भी हम ही हैं
हम ही आज़ादी का शोर

Monday, July 10, 2017

क्रिकेट और मिट्टी का घरौंदा..

सरकारी स्कूल की वो सातवीं कक्षा थी। खेल का मतलब सिर्फ क्रिकेट होता था। जब आप राजस्थान में जोधपुर जिले के फलौदी तहसील से नाता रखते हैं तो खेजड़ी वृक्ष आपके लिए एकदम सामान्य वृक्ष है। क्रिकेट हमने उसी खेजड़ी वृक्ष की मोटी-सी डाल से बैट निकाल कर खेला है। यह बेसबॉल के बैट की तरह दिखता था। शॉट किसी भी दिशा में जा सकता था। हालांकि हमने मार्केट से मिलने वाले बल्ले से भी खेला है लेकिन जॉन्टी रॉड्स, शोएब अख्तर, अनिल कुंबले और नयन मोंगिया के किरदारों का भी खासा असर रहा कि बल्लेबाजी से ज्यादा ध्यान और हिस्सों पे भी रहा। ऐसे में बल्ला कैसा भी हो क्या फर्क पड़ता। उस वक़्त मैदान में लगता था क्या मस्त ज़िन्दगी है। हमने तो ये तक डिस्कस किया था कि अमेरिकन्स कितने बदनसीब है बेचारे, वेस्ट इंडीज को छोड़ दो तो बाकियों को बेसबॉल और रग्बी से काम चलाना पड़ता है। क्रिकेट उनके नसीब में ही नहीं। क्रिकेट का वो खुमार ऐसा था कि कभी सोचा तक नहीं कि गर ये खुमार किसी दिन उतर गया तो?

समय बीता। मैच फिक्सिंग के दौर में हैंसी क्रोन्ये, निकी बोये, अजहरुद्दीन, अजय जडेजा और हर्शल गिब्स का नाम उछला। बाकी बरी हुए और क्रोन्ये ने अपना जुर्म स्वीकार किया। उस वक़्त लगा जैसे किसी ने मिट्टी में बनाया हमारा सबसे सुंदर घरौंदा तोड़ दिया हो। हमने ये घरौंदा फिर से बनाना-सजाना शुरू किया। सौरव गांगुली की अगुवाई में हमने भारतीय टीम को विदेशी जमीन पर पहली बार आक्रामक तेवर से खेलते और अंग्रेजों को उनकी भाषा मे जवाबी गालियाँ देते और जीतते देखा। पूरी तरह से बिखरी हुई टीम को विश्व कप 2007 के लिए फिर से तैयार होते देख ही रहे थे कि 2005 में ऑस्ट्रेलिया से आए कोच ग्रेग चैपल ने अगले 2 बरस भारतीय टीम की बखिया ही उधेड़ कर रख दी। गांगुली सहित पुराने खिलाड़ी जैसे उनके लिए किरकिरी थे। यह चैप्टर इतना लंबा खिंचा था कि क्रिकेट का खुमार लगभग उत्तर ही चुका था। भारत और पाकिस्तान तो सुपर-8 में भी जगह नहीं बना सके। उधर हार के ठीक अगले दिन पाकिस्तानी कोच बॉब वूल्मर अपने होटल के कमरे में मृत पाए गए। इस बार तो जैसे घरौंदा पूरी तरह नेस्तनाबूद हो चुका था।

आखिरकार चैपल को पूरे भारतवर्ष से गालियाँ पड़नी शुरू हुई। बीसीसीआई का सपोर्ट भी खत्म हुआ। कोई रास्ता न मिला तो वे पतली गली से निकल लिए। इसके बाद आए दक्षिण अफ्रीकी कोच- गैरी कर्स्टन। टीम ऐसे उभरी जैसे अब अगले विश्व कप में हमें कोई नहीं हरा सकता। और सचिन के अधूरे सपने को पूरा होते देखा.. 2011 का विश्व कप हमने जीत लिया। कप्तान गांगुली नहीं थे। कप्तान थे महेंद्र सिंह धोनी। मगर हमारे दिलों की धड़कन तो गाँगुली ही थे। लड़ना और अंग्रेजों को गरजकर दिखाना उन्होंने ही शुरू किया था। ये गाँगुली ही तो थे जिन्होंने सहवाग को लेकर पाकिस्तान को पाकिस्तान में हराया था। इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में हराया और इंग्लैंड को इंग्लैंड में धूल चटाकर एंड्रयू फ्लिंटॉफ की सरजमीं पर उसके खुद से ज्यादा आक्रामकता से वो टी-शर्ट निकाल कर लॉर्ड्स के स्टेडियम में फहराई थी। वह खुमार तो सिर्फ 90 के दशक के क्रिकेट फैन ही समझ सकते हैं। उस वक़्त रगों में खून नहीं, फिर से क्रिकेट दौड़ता था। हमने इस बार अब तक का सबसे बड़ा घरौंदा बनाया, लेकिन तभी..

2008 में खबर आई कि गाँगुली अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास ले रहे हैं। ये वो दौर था जब दो तरह के दर्शक हुआ करते थे। एक वे पुराने जिन्होंने क्रीज से दो कदम बाहर आकर लॉंग ऑफ और लॉंग ऑन के बीच गेंदबाज़ की टोपी के ऊपर से सिक्सर लगाने वाले के पर्याय के रूप में सचिन तेंदुलकर को देखा था, तो वहीं दूसरे वे जिन्होंने हेलीकॉप्टर शॉट के बेताज बादशाह एम.एस. धोनी की फुर्ती देखी थी। हम वो पुराने टाईप वाले दर्शक थे जिनका अब समय उसी तरह खत्म हो रहा था जिस तरह हमारे हीरोज का। थोड़े समय बाद सचिन, सहवाग, कुंबले, द्रविड़ भी इस मैदान से बाहर आ गए। सहवाग को तो अलविदा तक करने का मौका नहीं दिया गया। हमें लगा जैसे अब क्रिकेट में कुछ नहीं बचा, यह नए दर्शकों के लिए है।

बाद में आईपीएल के मकड़जाल ने इसे और ज्यादा फेमस भी कर दिया और बदनाम भी। हरभजन-श्रीशांत विवाद के बाद कई विवाद और उभरे। मैच फिक्सिंग का धुँआ भी उठता दिख रहा था लेकिन खबरें दबाई जा रही थी और आईपीएल का नशा लोगों को उस जबरदस्ती से दिया जा रहा था जैसे दोस्त लोग न पीने वाले यार को पहली बार तरह-तरह के टिप्स और ढकोसले देते हुए पिलाते हैं। बाद के दिनों में आखिरकार कुछ खबरें और आई और मैच फिक्सिंग पुख़्ता खबर बन के छाई। श्रीशांत को तो अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से ही छुट्टी दे दी गई, जिसे हालांकि काफी बाद में बरी भी कर दिया गया। किन्तु अब तो यह खेल सिवाय पैसों के बड़े बिज़नेस के कुछ भी नहीं रह गया है। हालांकि नए दर्शकों ने नए हीरोज के साथ अपने घरौंदे बना लिए हैं, किन्तु अब हमने अपनी मिट्टी इस कीचड़ से ही दूर कर ली है।

अब मजा नहीं आता। अब वो खुमार खत्म हो गया है। जज़्बा अभी भी है लेकिन अब कोई और खेल ढूंढ रहे हैं। सुना है हॉकी में भारत बादशाह है। बिलियर्ड्स में पंकज आडवाणी का नाम ही काफी है। शूटिंग, शतरंज, बैडमिंटन, टेनिस और कबड्डी में भी हमारा शानदार नाम चमक रहा है। एक नया खेल ढूंढना है, जिसमें पैसों से ज्यादा खिलाड़ी की प्रतिभा चमके। जिसमें भारत का जिक्र हो, खिलाड़ियों की गर्लफ्रेंड्स का नहीं। जिसमें शराब के विज्ञापनों से ज्यादा कोच की असली मेहनत का पसीना बोले। जिसमें आने वाले नए भारत का पुरजोर स्वागत हो और पुराने भारत को न्यायसंगत उचित सम्मान। जिसमें राष्ट्रध्वज पर भी उतना ही फ़ख्र हों जितना भारत के पक्ष में बढ़ते स्कोर का। जिसमें भावशून्य होकर एकाग्रता से फिर से एक घरौंदा बनाया जाए, एक ऐसे खेल की तलाश है। गीली मिट्टी और सने हुए हाथों के साथ एक दर्शक के तौर पर क्रिकेट से सन्यास..

- क्रिकेट का एक पुराना वाला दर्शक

Friday, June 23, 2017

पुस्तक समीक्षा : Freedom at Midnight

हाल ही में Dominique Lapierre और Larry Collins की विश्व-विख्यात पुस्तक FREEDOM AT MIDNIGHT फिनिश की। यह पुस्तक इतनी व्यापक इतनी गहन है कि उस दौर के लगभग हर अहम विषय का समावेश किए हुए हैं। फिर भी माउंटबेटन, जिन्ना, नेहरू और गाँधी पर केंद्रित यह पुस्तक इतनी खास लगी कि एक बार इसे 30-40% पढ़कर पुनः वापिस से शुरू करनी पड़ी।

हमारे ही बादशाहों की काली करतूतों, जिन्ना के अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाने की ज़िद, माउंटबेटन के चरित्र को अति-सावधानीपूर्वक उकेरते हुए एक हीरो की भांति चित्रित करने, बंटवारे के समय के खून-खराबे में दोनों ओर के लोगों के खून से सने किरदारों, गाँधी जी की हत्या में लिप्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही कुछ सदस्यों के अलावा जिस खास चीज़ ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह थी गाँधीजी का वह महान जीवन जो यकीनन कोई महात्मा (महान आत्मा) ही जीकर साकार कर सकता है, जो किसी इंसान के बस की बात नहीं। कितने अनिश्चितकालीन अन्न-व्रत, वो साप्ताहिक मौन व्रत, प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति, हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए क्रूर से भी क्रूर बस्तियों में अपने दम पर खुद जाना और वहाँ भाईचारा बहाल करवाना, माउंटबेटन की योजना के विरुद्ध अपने दम पर दो टुकड़े होने जा रहे एक वतन को जोड़े रखने का हर-संभव प्रयत्न कर टूटने की हद पर आ जाना। सच तो यह है कि इस एक किरदार ने पूरी पुस्तक में जान डाल रखी थी।

फिल्मों से इत्तर गर हम गाँधीगिरी को उसकी असली हद तक देखना परखना चाहें तो हमें इसे पुस्तकों में ही पढ़ना होगा। हाल के बरसों में गाँधी जी को बहुत से राजनीतिक और कुण्ठित लोगों ने बदनाम भी करने की कोशिश की है लेकिन ध्रुव तारे को भी क्या कोई धूल-कोई बादल छिपा सकता है भला? हो सके तो इस पुस्तक को पढ़िए, गाँधी को पढ़िए। कुछ ऐसा था जो अब इस वतन में नही रहा। नमन उस महान-आत्मा को...

Tuesday, June 13, 2017

FAN

यों तो दुनिया में लगभग हर देश में लोगों को किसी सेलेब्रिटी या व्यक्ति विशेष का 'फैन' होने का अपना एक शौक है, किन्तु बात जब भारत जैसे 'लोकतांत्रिक' और 'विविधताओं के देश' की हो, तो मामला कुछ और गंभीर हो जाता है। यहाँ हाल के कुछ वर्षों में स्थिति वास्तव में गौर करने लायक है। दरअसल यहाँ के फैन, फैन होने के इस शौक को उस हद तक ले जाते हैं कि कंपीटिशन में विरोधी फैन्स को अपने खेमे में लाने का भरसक प्रयत्न करते हैं और इस खेल में गाली-गलौज तो सामान्य से भी सामान्य बात है, यहाँ तक कि मारपीट और रंजिश तक अंजाम देने लगते हैं।

समाज की ऐसी व्यवस्था में फैन होने का मेरे विचारों में एक ही अर्थ है कि अपने उक्त चहेते आदर्श/सेलेब्रिटी/व्यक्ति विशेष के अवगुणों पर खुद पर्दा डालकर और उन पर उठने वाले हर आपराधिक या नकारात्मक प्रश्न को बिना सत्यता की जाँच तक किए तुरंत दरकिनार कर देना, वहीं दूसरी ओर उनकी हर सकारात्मक बात को और बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार करना। प्रचार करने का यह खेल उस दर्जे तक ले जाना कि खुद झूठे सकारात्मक दावे करना और विरोधियों के झूठे गलत कार्य प्रचारित करना।

इस बात को हम और आप झुठला नहीं सकते। यह हम हर रोज देखते हैं। हमारे हीरो की हर गलत बात अनदेखी करना और झूठी है कह कर उस ओर आँखें मूंद लेना यह सामान्य हो चुका है। ऐसा कहाँ नहीं हो रहा? सच तो यह है कि 'लोकतांत्रिक' और 'विविधताओं के धनी' इस राष्ट्र- भारत की इन्हीं दो विशेषताओं जो इसकी असली परिभाषा के आधार तत्त्व हैं, को हम अब सहन नहीं कर पा रहे और इन्हें ही हम मिटाने को अग्रसर हुए जा रहे हैं। ऐसे में अक्सर यह सोचता हूँ कि आने वाला कल किसी बाहरी नव-आगंतुक को क्या परिभाषा सिखाएगा हमारे भारत की, जब न तो यह लोकतंत्र रहेगा न इसमें कोई विविधता ही बचेगी। या तो यह हिन्दू राष्ट्र बनकर रह जाएगा या फिर मुस्लिम राष्ट्र। या तो भाजपा मुक्त या कांग्रेस मुक्त राष्ट्र। या तो कट्टरपंथी राष्ट्र या पूंजीवादी राष्ट्र। या तो हिंसात्मक राष्ट्र या भ्रष्टाचारी राष्ट्र। या तो धर्मांध राष्ट्र या पाश्चात्य-अंध राष्ट्र।

यही फैन हो जाने की लत हमें वहाँ ले जाएगी जहाँ हम भारत के 'भारत' होने वाले मूल अर्थ को खो देंगे। फैन होना हमें आपस मे झगड़ने को अग्रसर करता है। यह हमें दूसरों पर अपने विचार थोपने को अग्रसर करता है। यह ऐसा धीमा जहर है जो कुछ ही समय मे अपना असर शुरू कर देता है और देखते ही देखते आदत में शुमार हो हमसे वो करवाने लगता है जो हमारे समाज के संस्कारों में भी नहीं है। हमारे समाज मे तो 'आदर्श' तत्व की व्यवस्था है, यह 'फैन' तत्व तो खुद ही मूल-रूप से विदेशी (पश्चिमी) है। आदर्श माने हम किसी को अपना आदर्श मानकर उसके सकारात्मक पहलुओं को अपनाएँ। लेकिन इसमें एक बात का फर्क है। फैन होने पर हममें एक और तत्त्व का इजाफ़ा होता है- 'गर्व'। यहीं गर्व थोड़े समय में, यदि लगाम न कसी जाए तो 'घमंड' में तब्दील हो जाता है। और फिर यहीं घमंड बाद में 'उद्दंडता' में। आदर्शवादी होने में इसी गर्व तत्त्व का अभाव होता है और इसकी बजाय हममें 'परोपकार' तत्त्व का इजाफ़ा होता है जो भारत की हर 'विविधता का मूल' है और जो हमें सच्चा भारतीय बनाता है।

दुनिया हमसे बहुत आगे निकल चुकी है। एक सदी से हम खुद के राष्ट्र के लिए 'विकासशील' शब्द ही सुनते आएँ हैं जो सुनने में बहुत अच्छा लगता है। एक ओर हम अंतरिक्ष मे नए आयाम जरूर स्थापित कर रहे हैं किन्तु वहीं सिक्के का दूसरा पहलू हमारे राष्ट्र में अंग्रेजों के आगम से शुरू हुई गरीबी आज भी पाँव पसारे बैठी है और पड़ोसी राष्ट्रों ने हमारी अर्थव्यवस्था और सुरक्षा पर हमेशा एक काली छाया बिठाये रखी है। हम बरसों पुराने हमारे ग्रंथों, हमारे महान पूर्वजों और हमारे महान योद्धाओं जो अब नही रहे के गुणगान में ही जरूरत से ज्यादा खुश नजर आते रहते हैं और अपने वर्तमान को लगातार नजरअंदाज किए हुए हैं। आज किसी का फैन होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि किसी महान आदर्श के आदर्शवादी होने की भारी जरूरत है। हमारे महान आदर्शों को पढ़िए। सुनी-सुनाई न सुनिए। अपने लिए एक अच्छा आदर्श खोजिए। इसमे वक्त दीजिए। अपनी आँखें खुली रखिए। कुछ दृश्य और कुछ आवाज़ें चुभने भी लगेगी, उन्हें चुभने दीजिए। यह चुभन भी अत्यन्त जरूरी है। फैन मत बनिए।

ऐ मेरे भारत में रहने वाले भाँति-भाँति के फैन्स दोस्तों, आँखों से यह चश्मा उतार लीजिए। हमने हमेशा लुटना ही सीखा है। हमे किसने नहीं लूटा! गजनवी के बाद अंग्रेज, अंग्रेजों के बाद नेता और अब नेताओं के बाद हमारा so called 'Yuth'! आखिरी शब्द पढ़कर कोई आश्चर्य?

यदि हाँ, तो ईमानदारी से इस प्रश्न का जवाब ढूँढिये कि भारत का Yuth होते हुए वर्तमान परिस्थितियों में, बजाय किसी महान हस्ती के आदर्शवादी होने के, आप किस सिलेब्रिटी के FAN हैं..?

Wednesday, April 26, 2017

टीवी : एक आवारा-सा गरीब

आज की तारीख में टीवी देखो तो सैकड़ों चैनल्स और हजारों प्रोग्राम्स मिल जाएंगे। लगभग हर वाहियात विषय तक पर चैनल्स और प्रोग्राम्स है।

इतनी भीड़ में भी एक दूरदर्शन के शो 'किताबनामा' को छोड़ दो तो 'पुस्तकों' पर कहीं भी एक प्रोग्राम तक नहीं मिलता। सच तो यह है कि टीवी अब लगता ही नहीं कि ज्ञान का साधन रहा हो, यह एक आवारा-सा 'गरीब' जान पड़ता है जिसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है।

'नई सड़क' ब्लॉग के लेखक और एनडीटीवी के न्यूज़ एंकर, रविश कुमार अक्सर सच ही कहते हैं, "टीवी कम देखिए।" इस विषय में मेरी ही लिखी चंद पंक्तियाँ याद आती है..

फैला इनका गज़ब व्यापार है,
चैनल आज सौ से भी पार है,
फूहड़ हर ज्ञान और मल्हार है,
ना वो 'सुरभि' ना 'चित्रहार' है..

Saturday, March 18, 2017

छोटी-सी बात.. (भाग-4)

वक़्त की चोटों से छिले ख़्वाब,
हम पुरानी यादों में जीते नवाब..

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कुछ शब्द.. इतने नुकीले होते हैं कि
आने वाली नस्लें भी दर्द ढो रही होती हैं..

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कभी-कभी शब्दों को पोटली में बांधकर रखिए,
बात जो नाज़ुक-सी कहनी हो आँखों ही से कहिए..

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जो ख़्वाब था वो कभी टूट चुका
जो भ्रम था वो अभी रूठ चूका
इक अरमाँ था बाकी कहीं सीने में
अबकी सैलाब में वो भी छूट चुका

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आस्तीनों के सांप.. पाल रखे हैं हम सबने,
और फिर कहते हैं.. हमें दुःख दिया है रब ने..

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किरदार की फ़िकर में सीरत थी संवारनी,
दिल चंचल बुलबुला, कर बैठा आवारगी..

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इक मेरा आईना है जो अपने ही भ्रम पालता है,
इक तेरा चेहरा है जो मुझे हर रोज संवारता है..

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जवानी से थोड़ा आगे चलकर, दो मोड़ थे मुड़ते हुए,
इक चकाचौन्ध-सा, कहीं दूर जाता हुआ,
इक शाँत-सा, कच्चा-सा..
माँ के आँगन की ओर सरकता हुआ..

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कुछ ख़्वाबों का अधूरा रहना भी जरूरी है,
ज़िन्दगी में सब मुकम्मल मिले तो जीना क्या..

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शहनाई बेज़ान सी पड़ी है आज इक कोने में,
संगीत के सब 'सुर' अब 'डिजिटल' हो गए हैं..

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मंदिर की दहलीजों ने भी महसूस किया है,
उदास आँखों के भीतर भी इक दुनिया है..

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खुशियों ने हमेशा एक दूरी से देखा मुझे,
ये तो ग़म थे जिन्होंने सदा अपनाया मुझे..

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पाने को बहुत कुछ न पा सके तुझसे ऐ ज़िन्दगी,
दिल को मगर अब तक जवाँ रखे है क्या ये कम है..

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रंग होली का तो फिर भी उतर जाएगा,
रंग गर मेरा उतरे तुम पर से तो बताना..

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ये कोई मन्नत न थी कि तुमको पा लूँ किसी रोज,
ये उस मंदिर की दहलीज-ओ-दीवारों की ज़िद थी..

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होलियाँ तो कईं आई और गई,
अबकी बार जो चढ़ा है ये रंग न उतरेगा
रहगुजर तो कईं आए और गए,
दिल में लेकिन तुमसा कभी न ठहरेगा..

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कभी-कभी दर्द खुद भी इक दवा-सा लगता है,
टूटा हुआ वो बूढ़ा ख़्वाब भी जवाँ-सा लगता है..

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काँच के बना रखे हैं मन यहाँ हमने,
इक जरा-सी बाहरी खनक और सब चूर..

Wednesday, February 22, 2017

इक शाम ऐसी हो..

इक शाम ऐसी हो,

तुम हो, मैं होऊं, और कोई न हो
नई चाहतें हो, कईं राहतें हो, कोई आहतें न हो,
खुला आकाश हो, प्रेम-विन्यास हो, कोई कयास न हो,
हाथ में हाथ हो, इक-दूजे का साथ हो, कोई बात न हो,
मचलते अरमाँ हो, बरसता समाँ हो, कोई तूफ़ाँ न हो,

इक शाम ऐसी हो..
करवटें हों, सिलवटें हों, कोई आहटें न हो
ज़िन्दगी हो, दिलकशी हो, कोई गमनशीं न हो
दीवानगी हों, तिश्नगी हो, कोई दिलठगी न हो
पूरी मन्नतें हों, नई जन्नतें हों, कोई जिल्लतें न हो
हाँ बस तुम हो, मैं होऊं और कोई न हों..

इक शाम ऐसी हो...