Tuesday, July 25, 2017

चले थे जो...

चले थे जो निकल के
घर से कॉलेज की ओर,
क्या सुहाना सफर था
थी क्या सुहानी भोर..

अरमानों की गठरियाँ
और मन की कच्ची डोर,
आज़ादी का मौसम
और रॉक संगीत का शोर..

सिलेबस के काले बदरा
और दोस्तों का मौसम,
रातों के हम जुगनू
जग लगता हमसे रौशन..

जब निकले कॉलेज से
तो सिर्फ डिग्री थी पास,
न मिला सुहाना सफर
न आई भोर कोई रास..

एक-एक कर खो गई
गठरियाँ सब अरमानों की,
बेड़ियों में जकड़ गयी
आज़ादी हम दीवानों की..

धज्जियाँ उड़ चुकी थी
रॉक संगीत की ऐसे,
सुरूर घुटनों पे आ
हो जाए तिश्नगी जैसे..

ज़िन्दगी खुद अब
रोज का सिलेबस हो गई,
दोस्ती की किताब
पिछले बरस का कोर्स हो गई..

जुगनुओं वाली रातें
हसीं कल का ख्वाब हो गई,
जग तो खुद है रौशन
हमारी रौशनी कही खो गई..

जीवन की कठोरता का
तब पहला अहसास हुआ,
बनावटी दुनिया का
असल एग्ज़ाम तब पास हुआ..

इक ऐसा दौर था वो
जूझते-हारते चलते रहे,
रुकते-गिरते तो कभी थमते
और खाली हाथ मलते रहे

किन्तु अपनी धुन के
हम भी जिद्दी शेर थे
हालात चाहे कठिन रहे
हम लेकिन दिलेर थे

मुसीबतों को अपना मान
एक-एक कर झेलते रहे,
आखिर हैं तो ये अपने ही
इसलिए दुःखों से खेलते रहे

उगते सूरज के साथ
मन के सब ख्वाब जोड़े
ढलती सांझ के साथ
जड़ सब दुःस्वप्न तोड़े

और फिर इक दिन
सफलता की कोंपलें फूटी
महक उठी मन की गलियाँ
बेबसी की बस्ती छूटी

इतना सब हो गुजरा
तब जाकर यह ज्ञान हुआ
मेहनत और जुनून की
ताकत का ध्यान हुआ

बेड़ियाँ भी हम ही हैं
और हम ही सुहानी भोर
कच्ची डोर भी हम ही हैं
हम ही आज़ादी का शोर

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