सरकारी स्कूल की वो सातवीं कक्षा थी। खेल का मतलब सिर्फ क्रिकेट होता था। जब आप राजस्थान में जोधपुर जिले के फलौदी तहसील से नाता रखते हैं तो खेजड़ी वृक्ष आपके लिए एकदम सामान्य वृक्ष है। क्रिकेट हमने उसी खेजड़ी वृक्ष की मोटी-सी डाल से बैट निकाल कर खेला है। यह बेसबॉल के बैट की तरह दिखता था। शॉट किसी भी दिशा में जा सकता था। हालांकि हमने मार्केट से मिलने वाले बल्ले से भी खेला है लेकिन जॉन्टी रॉड्स, शोएब अख्तर, अनिल कुंबले और नयन मोंगिया के किरदारों का भी खासा असर रहा कि बल्लेबाजी से ज्यादा ध्यान और हिस्सों पे भी रहा। ऐसे में बल्ला कैसा भी हो क्या फर्क पड़ता। उस वक़्त मैदान में लगता था क्या मस्त ज़िन्दगी है। हमने तो ये तक डिस्कस किया था कि अमेरिकन्स कितने बदनसीब है बेचारे, वेस्ट इंडीज को छोड़ दो तो बाकियों को बेसबॉल और रग्बी से काम चलाना पड़ता है। क्रिकेट उनके नसीब में ही नहीं। क्रिकेट का वो खुमार ऐसा था कि कभी सोचा तक नहीं कि गर ये खुमार किसी दिन उतर गया तो?
समय बीता। मैच फिक्सिंग के दौर में हैंसी क्रोन्ये, निकी बोये, अजहरुद्दीन, अजय जडेजा और हर्शल गिब्स का नाम उछला। बाकी बरी हुए और क्रोन्ये ने अपना जुर्म स्वीकार किया। उस वक़्त लगा जैसे किसी ने मिट्टी में बनाया हमारा सबसे सुंदर घरौंदा तोड़ दिया हो। हमने ये घरौंदा फिर से बनाना-सजाना शुरू किया। सौरव गांगुली की अगुवाई में हमने भारतीय टीम को विदेशी जमीन पर पहली बार आक्रामक तेवर से खेलते और अंग्रेजों को उनकी भाषा मे जवाबी गालियाँ देते और जीतते देखा। पूरी तरह से बिखरी हुई टीम को विश्व कप 2007 के लिए फिर से तैयार होते देख ही रहे थे कि 2005 में ऑस्ट्रेलिया से आए कोच ग्रेग चैपल ने अगले 2 बरस भारतीय टीम की बखिया ही उधेड़ कर रख दी। गांगुली सहित पुराने खिलाड़ी जैसे उनके लिए किरकिरी थे। यह चैप्टर इतना लंबा खिंचा था कि क्रिकेट का खुमार लगभग उत्तर ही चुका था। भारत और पाकिस्तान तो सुपर-8 में भी जगह नहीं बना सके। उधर हार के ठीक अगले दिन पाकिस्तानी कोच बॉब वूल्मर अपने होटल के कमरे में मृत पाए गए। इस बार तो जैसे घरौंदा पूरी तरह नेस्तनाबूद हो चुका था।
आखिरकार चैपल को पूरे भारतवर्ष से गालियाँ पड़नी शुरू हुई। बीसीसीआई का सपोर्ट भी खत्म हुआ। कोई रास्ता न मिला तो वे पतली गली से निकल लिए। इसके बाद आए दक्षिण अफ्रीकी कोच- गैरी कर्स्टन। टीम ऐसे उभरी जैसे अब अगले विश्व कप में हमें कोई नहीं हरा सकता। और सचिन के अधूरे सपने को पूरा होते देखा.. 2011 का विश्व कप हमने जीत लिया। कप्तान गांगुली नहीं थे। कप्तान थे महेंद्र सिंह धोनी। मगर हमारे दिलों की धड़कन तो गाँगुली ही थे। लड़ना और अंग्रेजों को गरजकर दिखाना उन्होंने ही शुरू किया था। ये गाँगुली ही तो थे जिन्होंने सहवाग को लेकर पाकिस्तान को पाकिस्तान में हराया था। इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में हराया और इंग्लैंड को इंग्लैंड में धूल चटाकर एंड्रयू फ्लिंटॉफ की सरजमीं पर उसके खुद से ज्यादा आक्रामकता से वो टी-शर्ट निकाल कर लॉर्ड्स के स्टेडियम में फहराई थी। वह खुमार तो सिर्फ 90 के दशक के क्रिकेट फैन ही समझ सकते हैं। उस वक़्त रगों में खून नहीं, फिर से क्रिकेट दौड़ता था। हमने इस बार अब तक का सबसे बड़ा घरौंदा बनाया, लेकिन तभी..
2008 में खबर आई कि गाँगुली अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास ले रहे हैं। ये वो दौर था जब दो तरह के दर्शक हुआ करते थे। एक वे पुराने जिन्होंने क्रीज से दो कदम बाहर आकर लॉंग ऑफ और लॉंग ऑन के बीच गेंदबाज़ की टोपी के ऊपर से सिक्सर लगाने वाले के पर्याय के रूप में सचिन तेंदुलकर को देखा था, तो वहीं दूसरे वे जिन्होंने हेलीकॉप्टर शॉट के बेताज बादशाह एम.एस. धोनी की फुर्ती देखी थी। हम वो पुराने टाईप वाले दर्शक थे जिनका अब समय उसी तरह खत्म हो रहा था जिस तरह हमारे हीरोज का। थोड़े समय बाद सचिन, सहवाग, कुंबले, द्रविड़ भी इस मैदान से बाहर आ गए। सहवाग को तो अलविदा तक करने का मौका नहीं दिया गया। हमें लगा जैसे अब क्रिकेट में कुछ नहीं बचा, यह नए दर्शकों के लिए है।
बाद में आईपीएल के मकड़जाल ने इसे और ज्यादा फेमस भी कर दिया और बदनाम भी। हरभजन-श्रीशांत विवाद के बाद कई विवाद और उभरे। मैच फिक्सिंग का धुँआ भी उठता दिख रहा था लेकिन खबरें दबाई जा रही थी और आईपीएल का नशा लोगों को उस जबरदस्ती से दिया जा रहा था जैसे दोस्त लोग न पीने वाले यार को पहली बार तरह-तरह के टिप्स और ढकोसले देते हुए पिलाते हैं। बाद के दिनों में आखिरकार कुछ खबरें और आई और मैच फिक्सिंग पुख़्ता खबर बन के छाई। श्रीशांत को तो अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से ही छुट्टी दे दी गई, जिसे हालांकि काफी बाद में बरी भी कर दिया गया। किन्तु अब तो यह खेल सिवाय पैसों के बड़े बिज़नेस के कुछ भी नहीं रह गया है। हालांकि नए दर्शकों ने नए हीरोज के साथ अपने घरौंदे बना लिए हैं, किन्तु अब हमने अपनी मिट्टी इस कीचड़ से ही दूर कर ली है।
अब मजा नहीं आता। अब वो खुमार खत्म हो गया है। जज़्बा अभी भी है लेकिन अब कोई और खेल ढूंढ रहे हैं। सुना है हॉकी में भारत बादशाह है। बिलियर्ड्स में पंकज आडवाणी का नाम ही काफी है। शूटिंग, शतरंज, बैडमिंटन, टेनिस और कबड्डी में भी हमारा शानदार नाम चमक रहा है। एक नया खेल ढूंढना है, जिसमें पैसों से ज्यादा खिलाड़ी की प्रतिभा चमके। जिसमें भारत का जिक्र हो, खिलाड़ियों की गर्लफ्रेंड्स का नहीं। जिसमें शराब के विज्ञापनों से ज्यादा कोच की असली मेहनत का पसीना बोले। जिसमें आने वाले नए भारत का पुरजोर स्वागत हो और पुराने भारत को न्यायसंगत उचित सम्मान। जिसमें राष्ट्रध्वज पर भी उतना ही फ़ख्र हों जितना भारत के पक्ष में बढ़ते स्कोर का। जिसमें भावशून्य होकर एकाग्रता से फिर से एक घरौंदा बनाया जाए, एक ऐसे खेल की तलाश है। गीली मिट्टी और सने हुए हाथों के साथ एक दर्शक के तौर पर क्रिकेट से सन्यास..
- क्रिकेट का एक पुराना वाला दर्शक
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