Saturday, March 18, 2017

छोटी-सी बात.. (भाग-4)

वक़्त की चोटों से छिले ख़्वाब,
हम पुरानी यादों में जीते नवाब..

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कुछ शब्द.. इतने नुकीले होते हैं कि
आने वाली नस्लें भी दर्द ढो रही होती हैं..

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कभी-कभी शब्दों को पोटली में बांधकर रखिए,
बात जो नाज़ुक-सी कहनी हो आँखों ही से कहिए..

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जो ख़्वाब था वो कभी टूट चुका
जो भ्रम था वो अभी रूठ चूका
इक अरमाँ था बाकी कहीं सीने में
अबकी सैलाब में वो भी छूट चुका

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आस्तीनों के सांप.. पाल रखे हैं हम सबने,
और फिर कहते हैं.. हमें दुःख दिया है रब ने..

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किरदार की फ़िकर में सीरत थी संवारनी,
दिल चंचल बुलबुला, कर बैठा आवारगी..

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इक मेरा आईना है जो अपने ही भ्रम पालता है,
इक तेरा चेहरा है जो मुझे हर रोज संवारता है..

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जवानी से थोड़ा आगे चलकर, दो मोड़ थे मुड़ते हुए,
इक चकाचौन्ध-सा, कहीं दूर जाता हुआ,
इक शाँत-सा, कच्चा-सा..
माँ के आँगन की ओर सरकता हुआ..

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कुछ ख़्वाबों का अधूरा रहना भी जरूरी है,
ज़िन्दगी में सब मुकम्मल मिले तो जीना क्या..

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शहनाई बेज़ान सी पड़ी है आज इक कोने में,
संगीत के सब 'सुर' अब 'डिजिटल' हो गए हैं..

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मंदिर की दहलीजों ने भी महसूस किया है,
उदास आँखों के भीतर भी इक दुनिया है..

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खुशियों ने हमेशा एक दूरी से देखा मुझे,
ये तो ग़म थे जिन्होंने सदा अपनाया मुझे..

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पाने को बहुत कुछ न पा सके तुझसे ऐ ज़िन्दगी,
दिल को मगर अब तक जवाँ रखे है क्या ये कम है..

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रंग होली का तो फिर भी उतर जाएगा,
रंग गर मेरा उतरे तुम पर से तो बताना..

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ये कोई मन्नत न थी कि तुमको पा लूँ किसी रोज,
ये उस मंदिर की दहलीज-ओ-दीवारों की ज़िद थी..

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होलियाँ तो कईं आई और गई,
अबकी बार जो चढ़ा है ये रंग न उतरेगा
रहगुजर तो कईं आए और गए,
दिल में लेकिन तुमसा कभी न ठहरेगा..

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कभी-कभी दर्द खुद भी इक दवा-सा लगता है,
टूटा हुआ वो बूढ़ा ख़्वाब भी जवाँ-सा लगता है..

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काँच के बना रखे हैं मन यहाँ हमने,
इक जरा-सी बाहरी खनक और सब चूर..

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