..और रविश कुमार की 'इश्क़ में शहर होना' समाप्त की। हिन्दी भाषा में भी प्रयोग की एक प्रयोगशाला लगी - इश्क़ में शहर होना। दरअसल फेसबुक पर लिखे स्टेटस से लगने वाले अहसासों को उतारकर करीब 90 नन्ही-नन्ही कहानियों, बल्कि कहानी भी कुछ बड़ी होती ही है इसलिए कहना चाहिए इन्हीं करीब 90 नन्हे-नन्हे अहसासों को अपनी ही अलग लेखन शैली में न्यूनतम शब्दों में जोड़कर एक नन्ही पुस्तक का सृजन किया है जो फेसबुक फिक्शन श्रृंखला का एक हिस्सा है। इस श्रृंखला को 'लप्रेक' नाम दिया गया है यानी लघु-प्रेम-कथा।
पुस्तक में लेखन शैली तो बेहद पसंद आई लेकिन मूल रूप से यह दिल्ली के भीतर इसके विभिन्न कोनों और प्रसिद्ध स्मारकों एवं हिस्सों पर प्रस्फुटित होते प्रेम-प्रसंगों के छोटे-छोटे कैनवास उकेरती हैं और किसी बाहरी निवासी या यों कहें किसी ऐसे शख़्स जो दिल्ली से रूबरू न हो, के लिए यह बेहद कठिन हो जाती है क्योंकि इस कैनवास के रंग उसकी समझ से कुछ पर हो जाते हैं। यानी यह पुस्तक मुख्य रूप से एक दिल्लीवासी के लिए है। हाँ, दिल्ली जो इस पुस्तक में है वो उन तमाम दिल्लीओं से अलग है जो अन्य लेखकों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में दिखाई है, किन्तु फिर भी यह दिल्ली सिर्फ कल्पना न होकर वाकई वैसी है जैसी असल दिल्ली है।
कहानियों में शब्दों की माँग कुछ और थी और जो लेखक ने शायद इसलिए कम रखी क्यूँकि यह कहानियाँ न होकर अहसास मात्र थे। हर अहसास के साथ विक्रम नायक की चित्रकारी उसे कुछ और गहराई देने की अच्छी कोशिश लगी। पुस्तक के प्रारंभ में प्रस्तावना के तौर पर दिया गया 'शहर का किताब बनना' किसी भी कहानी (अहसास) से ज्यादा अच्छा लगा। आपको पढ़ने के लिए कहना तभी चाहूँगा गर आप दिल्लीवासी हों।
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