..और मणि शंकर मुखर्जी की 'विवेकानंद: जीवन के अनजाने सच' समाप्त की। अधिकांश जगहों पर किस्सों को समझने में दिक्कतें आती है क्योंकि लेखक ने पूर्ण स्पष्टीकरण नहीं दिया और शब्दों की कमी खलती है। शुरू से अंत तक यह एक लय में भी नही चलती जो बार-बार हमें भी लय से धकेलती रहती हैं। इसके बजाय यह पुस्तक समय रेखा पर कभी पीछे तो कभी बहुत आगे चलते हुए लगातार सक्रियता दिखाती है और हमें खुद ध्यान से तालमेल बिठाना पड़ता है। लेकिन क्यूँकि यह एक कहानी न होकर विभिन्न अनजाने किस्सों का संकलन है, इसलिए इसका ऐसा होना जायज है।
यह छोटा-सा ग्रंथ है जिसमें भीतर समस्त संकलन पाँच अध्याय/शीर्षकों में विभक्त है और जो वाकई नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानंद) के जीवन के तमाम अनजाने पहलुओं से रूबरू करवाता है। यह दिखाता है कि वे वाकई कितने सक्रिय थे और उन्होंने क्या-क्या दिन देखे थे। एक ओर जीवन की अंतिम घड़ी तक पारिवारिक मुकदमे जिनमे अच्छे-खासे परिवार की जमा-पूंजी ही खत्म हो चुकी होती है, वहीं दूसरी ओर सन्यास ग्रहण कर निकले बड़े बेटे की अनगिनत बीमारियाँ और गृह-चिंता। एक ओर अधिकांश भाई-बहनों की अकाल मृत्यु तो दूसरी ओर माँ की चिंता में गमगीन मानस के साथ उनका विश्व-पथिक बन विश्व में भारतवर्ष के परचम की पताका फहराना। एक महान सन्यासी के उनतालीस वर्ष, पाँच महीने और चौबीस दिनों की कठिनतम, बेहद मार्मिक और हृदयस्पर्शी यात्रा के विभिन्न पहलुओं का संकलन है यह पुस्तक।
इसे इसलिए पढ़िए कि आप जान सकें कि कौन थे विवेकानंद, कितने कठिन रास्ते पर चले थे विवेकानंद, यह जानने के लिए पढ़िए कि कैसे एक सन्यासी, सन्यास में भी अपनी माँ को नही त्याग पाया और उसने सन्यास को उसकी सही परिभाषा उदाहरण के साथ प्रस्तुत की, उस समय की धार का अनुभव लेने के लिए पढ़िए और पढ़िए तमाम उन बातों को जो विवेकानंद पर लिखी किसी और पुस्तक में विरले ही मिल सके।
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