Sunday, October 27, 2013

क्यूं...

खुली आँखों में ख़्वाब होने तक,
इस काया में जिंदा है इंसान,
यही ख़्वाब तो दौड़ते है सबको,
क्यूं पाना इन्हें है नहीं आसान

नया इक ख़्वाब नई इक चाह,
मन में हरपल नई इक चाह,
कुछ पाने के लिए हैं जी रहे,
क्यूं मिटती नहीं ये 'अबूझ' प्यास

अकेले खुशियाँ खुशियाँ कहाँ,
कुछ दर्द की जीवन में जरुरत भी हो,
पर मर्ज़ ही जब न दर्द का हो,
क्यूं फिर खुदा से नफरत भी हो

यही तो मन के नित-नए रंग है,
यहाँ रात भी है यहाँ दिन भी है,
सारी रात सोये अब चलना है,
क्यूं थम जाने की फिर जिद भी है

मेरी राहों में खूब कांटे है क्योंकि,
खुदा को मुझमे विश्वास गज़ब,
वो चाहे मैं पत्थर से 'हीरा' बनूँ,
क्यूं थक-हार बनूँ मैं 'नास्तिक' अब

जो भूत था वो बीता अभी,
भविष्य अभी तक है बना नहीं,
वर्तमान की कलम उठा कर,
क्यूं न लिखू इक कविता नई

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