Tuesday, March 4, 2014

काश ऐसा होता..

काश ऐसा होता कि हिंदू कहते यहाँ मस्जिद बनाएंगे.. मुस्लिम कहते कि नहीं, यहाँ मंदिर बनाएंगें।

पर राजनीति के वजीरों ने अंग्रेजी-हुकूमत की नीति खेली.. "फुट डालो और राज करो।" आज तमाम देशवासी धर्म के नाम पर इस राजनीतिक जाल में फंस 'धार्मिक घमंड' का शिकार हुए बैठे हैं। अपने धर्म पे इतना घमंड..? इतना कि दुसरे का धर्म ही बेहूदा लगने लगे..? इतना कि दुसरे के धर्म की धज्जियां उड़ाने लग जाएँ..? क्या आपका धर्म ये सब नसीहतें देता है..? क्या ये सब करके आप अपने धर्म का अनुसरण कर रहे हैं..? क्या ऐसे ओछे काम करने की इजाजत दे देता है आपका धर्म..? तो फिर किसका धर्म बेहूदा हुआ..?

धर्म का तो सिर्फ एक ही अर्थ होता है- मानवता। दूसरों को नुकसान ना पहुंचाना। समानता का रवैया अपनाना। सब के प्रति आदर भाव रखना।

पर आज तो कोई भी नौसीखिया "सोशल साईट्स" पर अपना ही पेज बना हर ग्रन्थ, हर धर्म और हर ईश्वर पर अपनी कच्ची बुद्धि से तैयार किये गए स्वनिर्मित, अनैतिक और अनुचित विचार थोप रहा है। इनके आक्रामक तेवर से एक पक्ष आकर्षित हो उसके साथ जुड़ता है तो दूसरा पक्ष आहत हो प्रतिक्रिया देता है। दोनों पक्षों को नहीं पता कि असल में उनका मकसद क्या है?

कैलेण्डर में तो सब धर्म से जुडी छुट्टियां होती है। त्यौहार चाहे किसी कौम का हो, छुट्टी सब मनाते हैं। तो ये दोगलापन क्यों? खुश ना रहने की वजहें खुद चला के क्यों इजाद करते फिरते है । धर्म तो अलग अलग इसीलिए बनाए गए होंगे कि दुनिया में रंगत बनी रहे और दूसरों के रिवाजों में भी शरीक हो खुशियाँ और ज्यादा इजाद की जा सके। अपने ही अपने रीवाजो से कुछ थोडा अलग जो देखने को मिले।

पर नहीं। हमारे वजीरों ने जो "बीज" हम में बोये है हर युग में, मकसद जिसका हमें उनके पक्ष में हो उनको (भेड़-झुण्ड के रूप में सिर्फ और सिर्फ) एक तादाद देना है, जिसके बूते वो अपनी हुकूमत के पत्ते खेल सके,उन बीजों से नए पौधे तो निकलने ही हैं। नयी खेप तो उगनी ही है। एक ऐसी नयी खेप जो खुद आगे चलकर ऐसे ही "बीज" देगी।

...दुनिया तरक्की कर रही है। हमें सिर्फ दुनिया की तरक्कियों के उदाहरणों से मतलब है, उनपे अमल करने से नहीं। हिन्दू बेकार है। मुस्लिम भी बेकार है। काश अच्छे होते। पर शायद दोनों सही है कि दूसरा वाला बेकार है। यानी दोनों ही बेकार है। इन "बुद्धिजीवियों" को देखकर तो ऐसा ही लगता है। तो फिर छोड़ दीजिये ना धर्म की ये आडंबरता जो बेकार है। कभी तो इंसान बनिए। पडोसी को उसके भाई ने तोहफा दिया तो सोचने लगे की काश मेरा भी ऐसा कोई भाई होता। ..पर ये क्यों नहीं सोच सकते कि काश वो तोहफा देने वाला भाई मैं होता।

काश ऐसा होता कि हिंदू कहते यहाँ मस्जिद बनाएंगे.. मुस्लिम कहते कि नहीं, यहाँ मंदिर बनाएंगें।

वर्ना तो फिर ठीक है.. जो चलता आया है, वो ही चलते भी रहना है। अच्छा है। चलते रहिये...

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