Wednesday, March 12, 2014

शजर जो ये सबको छाँव देता है..

शजर जो ये सबको छाँव देता है,
छाँव इसे भी कोई चाहिए तो होगी

सूरज जो ये सबको तपिश देता है,
तपिश इसे भी कोई चाहिए तो होगी

कोयल जो ये गीत सुनाती है सबको,
गीत कोई खुद भी सुनना चाहती तो होगी

ज़िंदगी जो ये स्वच्छंद-सी भ्रमर की,
फितरतों में फूलों के भी आती तो होगी

राहें जो ये जाती हैं मंजिलों तक,
मंजिलें इनकी अपनी भी होती तो होगी

इंसानियत जो ये दबी मज़हबी दीवारों तले,
मज़हब कोई इंसानियत का भी होता तो होगा

जीवन जो ये मर रहे नशे की लत में,
नशा कोई 'जीने' का भी होता तो होगा

बचपन जो ये गुजरता बस्ते के बोझ तले,
कोई बस्ता बचपन से भरा भी होता तो होगा

भविष्य की चिंता में सब हैं डूबे हुए,
वर्तमान में जीना भी कोई चाहता तो होगा

ईश्वर की खोज तो सब हैं करते आ रहे,
खुद की खोज भी कोई करता तो होगा

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