Friday, January 19, 2018

पुस्तक समीक्षा : स्वराज

..और अरविन्द केजरीवाल की पुस्तक 'स्वराज' समाप्त की। इस पुस्तक के बारे में दो बातें प्रारम्भ में ही इंगित कर देनी चाहिए - सबसे पहले तो यह बता देना जरूरी होगा कि सम्पूर्ण पुस्तक सत्ता के विकेंद्रीकरण पर जोर देती है। दूसरी अहम् बात ये है कि पुस्तक में जो थ्योरी दी गई है वह अपने आप में कोई नई थ्योरी नहीं है बल्कि यहीं थ्योरी आज से बरसों पहले महात्मा गाँधीजी बता चुके हैं।

यह सच है कि सरकारी तंत्र में पग-पग पर खामियाँ हैं और कई प्रकार की खामियाँ नित नए-नए (नागरिकों हेतु गैर-लाभकारी किन्तु सरकारी अधिकारियों-मंत्रियों हेतु अति-लाभकारी) कानूनों और बिलों को पास करवा कर इजाद भी की जा रही है। तमाम तरह के क़ानून केंद्र में बनते हैं। योजनाएं केंद्र में बनती हैं। अधिकांश योजनाओं का अधिकांश गाँवों-कस्बों की मुख्य समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं होता। वे बस बनाई जाती है ताकि मंत्रियों और बड़े अधिकारियों की आर्थिक तकलीफें दूर हो सके। पुस्तक कहती है कि इसके बजाय प्रत्येक गाँव में ग्राम सभाओं को उनकी असली ताकत मंजूर होनी चाहिए और इन तमाम योजनाओं की बजाय एक मुक्त रकम सीधे ग्राम सभाओं को मिलनी चाहिए। इसके बाद हर उस गाँव के नागरिक स्वयं ग्राम सभा में सरपंच के आगे तय करें कि उन्हें कितनी रकम स्कूल के लिए चाहिए, कितनी निम्नतम आय वाले उस गाँव के उनके द्वारा चयनित किए गए गरीब और बेसहारा लोगों को सहायता देने के लिए चाहिए, कितनी रकम जरुरतमंदों को विभिन्न ऋण योजनाओं के नाम पर आवंटित की जाए, कितनी रकम किस विकास पेटे में दी जाए। यानि सबकुछ ग्राम सभा तय करे और सरपंच मात्र उस निर्णय पर अपनी मोहर लगाए, इसी को स्वराज कहा गया है।

पुस्तक केवल मात्र थ्योरी पर नहीं चलती, वरन् कितनी ही केस स्टडीज भी समाहित किये हुए हैं। महाराष्ट्र के हिवरे बाजार गाँव का उदाहरण उनमें सबसे अनोखा और बेहतरीन है, जिसमें गिरते जा रहे सामाजिक मूल्यों और नैतिक पतन में ख़त्म होते उस गाँव के कुछ किशोर लड़के कैसे खुद आगे आकर एक संगठन निर्माण करने की योजना तय करते हैं और अपने में से एक नौजवान को सरपंच चुनने के बाद तमाम निर्णय लेने के लिए ग्राम सभा करवाने की योजना बनाते हैं। प्रारम्भ में जिसमें इक्के-दुक्के लोग ही हिस्सा लेते हैं लेकिन बाद में धीरे-धीरे लोग आने लगते हैं जब वे देखते हैं कि यहाँ तो अपने बच्चों की शिक्षा के लिए भी बजट बनाया जाता है। एक समय के बाद हिवरे बाजार गाँव की रंगत ही बदल गई।

पुस्तक यह भी कहती है कि आज होता यह है कि गाँव में सबसे शक्तिशाली ग्राम-सभा नहीं बल्कि गाँव का सरपंच होता है और जो सरपंच लिख दे उसे ग्राम-सभा द्वारा अनुचित ठहराने के लिए कोई विकल्प ही नहीं है। आज ग्राम सभा तो होती है किन्तु कहीं भी ग्राम सभा को कोई शक्ति नहीं है। पुस्तक में कई केस बताए गए हैं, जो यह स्पष्ट करते हैं कि आज ग्राम-सभाओं को वाकई में सरपंच के चंगुल से निकालकर खुद सरपंच को ग्रामसभा की मुहर बनाए जाने की सख्त जरुरत है। यदि ग्राम सभा को मुक्त रकम मिले, यदि अधिकारियों को दण्डित करने की शक्ति मिले, यदि सरपंच को भी वापिस बुला लेने की शक्ति मिले तो हर गाँव वाले अपनी असली जरूरतों के आधार पर और उपलब्ध मुक्त फंड की रकम को तरीके से नियोजित करते हुए खुद बेहतर ढंग से अपनी खुद की योजनाएं बना सकेंगे। इससे स्वास्थ सेवाओं का स्तर सुधरेगा, शिक्षा का स्तर सुधरेगा, नशाबंदी में सफलता मिलेगी, नक्सलवाद से छुटकारा मिलेगा, गरीबी-भुखमरी-बेरोजगारी का दमन हो सकेगा।

पुस्तक में विकेंद्रीकरण की इस जबरदस्त थ्योरी पर उठने वाले संशयों, संदेहों और सवालों पर भी जवाब दिए गए हैं। यह वर्तमान सिस्टम की खामियाँ बताती है, विकेंद्रीकरण द्वारा उनके व्यावहारिक हल भी बताती है। यह पुस्तक इसलिए पढ़ी जानी चाहिए ताकि हम जान पाएं कि दिखाए जाने वाले प्रलोभनों और राजनितिक योजनाओं के परे एक 'स्वराज' भी कहीं ओझल हो रहा है, जिसे ढूँढना बेहद जरुरी है। बरसों पहले एक बूढा फ़क़ीर भी हमें यहीं स्वराज दिखाता-दिखाता ओझल हो चुका। अन्यथा इस पीढ़ी की वर्तमान हालत को देखते हुए अगली पीढ़ी से यहीं उम्मीदें रह जाएंगी कि वह कम से कम पर गुजर करना सीख ले। पाँच सालों में वह उस नेता को वोट दे जो अच्छी बात कहता है और जिसका चुनावी एजेंडा भी दमदार है, बजाय इतना भी सोचे कि वह नेता अपनी पार्टी का एक मोहरा है और चुनाव जीतने के बाद वह अपनी पार्टी की ही सुनेगा। पार्टी केंद्र में शक्ति चाहती है ताकि केंद्र से वह समूचे राष्ट्र पर निगरानी रख सके। वह 'अपना अस्तित्व' बनाए रखने के लिए योजनाएं लागू करती है किसी जरूरतमंद का अस्तित्व बनाए रखने के लिए नहीं। अंत में पुस्तक के आखिरी पेज पर लिखी चंद पंक्तियाँ साझा करना चाहूँगा..

"सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए बीस लोग नहीं चला सकते। सत्ता के केंद्रबिंदू दिल्ली, बंबई और कलकत्ता जैसी राजधानियों में है। मैं उसे भारत के सात लाख गाँवों में बांटना चाहूँगा।"
- महात्मा गाँधी


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