यों तो दुनिया में लगभग हर देश में लोगों को किसी सेलेब्रिटी या व्यक्ति विशेष का 'फैन' होने का अपना एक शौक है, किन्तु बात जब भारत जैसे 'लोकतांत्रिक' और 'विविधताओं के देश' की हो, तो मामला कुछ और गंभीर हो जाता है। यहाँ हाल के कुछ वर्षों में स्थिति वास्तव में गौर करने लायक है। दरअसल यहाँ के फैन, फैन होने के इस शौक को उस हद तक ले जाते हैं कि कंपीटिशन में विरोधी फैन्स को अपने खेमे में लाने का भरसक प्रयत्न करते हैं और इस खेल में गाली-गलौज तो सामान्य से भी सामान्य बात है, यहाँ तक कि मारपीट और रंजिश तक अंजाम देने लगते हैं।
समाज की ऐसी व्यवस्था में फैन होने का मेरे विचारों में एक ही अर्थ है कि अपने उक्त चहेते आदर्श/सेलेब्रिटी/व्यक्ति विशेष के अवगुणों पर खुद पर्दा डालकर और उन पर उठने वाले हर आपराधिक या नकारात्मक प्रश्न को बिना सत्यता की जाँच तक किए तुरंत दरकिनार कर देना, वहीं दूसरी ओर उनकी हर सकारात्मक बात को और बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार करना। प्रचार करने का यह खेल उस दर्जे तक ले जाना कि खुद झूठे सकारात्मक दावे करना और विरोधियों के झूठे गलत कार्य प्रचारित करना।
इस बात को हम और आप झुठला नहीं सकते। यह हम हर रोज देखते हैं। हमारे हीरो की हर गलत बात अनदेखी करना और झूठी है कह कर उस ओर आँखें मूंद लेना यह सामान्य हो चुका है। ऐसा कहाँ नहीं हो रहा? सच तो यह है कि 'लोकतांत्रिक' और 'विविधताओं के धनी' इस राष्ट्र- भारत की इन्हीं दो विशेषताओं जो इसकी असली परिभाषा के आधार तत्त्व हैं, को हम अब सहन नहीं कर पा रहे और इन्हें ही हम मिटाने को अग्रसर हुए जा रहे हैं। ऐसे में अक्सर यह सोचता हूँ कि आने वाला कल किसी बाहरी नव-आगंतुक को क्या परिभाषा सिखाएगा हमारे भारत की, जब न तो यह लोकतंत्र रहेगा न इसमें कोई विविधता ही बचेगी। या तो यह हिन्दू राष्ट्र बनकर रह जाएगा या फिर मुस्लिम राष्ट्र। या तो भाजपा मुक्त या कांग्रेस मुक्त राष्ट्र। या तो कट्टरपंथी राष्ट्र या पूंजीवादी राष्ट्र। या तो हिंसात्मक राष्ट्र या भ्रष्टाचारी राष्ट्र। या तो धर्मांध राष्ट्र या पाश्चात्य-अंध राष्ट्र।
यही फैन हो जाने की लत हमें वहाँ ले जाएगी जहाँ हम भारत के 'भारत' होने वाले मूल अर्थ को खो देंगे। फैन होना हमें आपस मे झगड़ने को अग्रसर करता है। यह हमें दूसरों पर अपने विचार थोपने को अग्रसर करता है। यह ऐसा धीमा जहर है जो कुछ ही समय मे अपना असर शुरू कर देता है और देखते ही देखते आदत में शुमार हो हमसे वो करवाने लगता है जो हमारे समाज के संस्कारों में भी नहीं है। हमारे समाज मे तो 'आदर्श' तत्व की व्यवस्था है, यह 'फैन' तत्व तो खुद ही मूल-रूप से विदेशी (पश्चिमी) है। आदर्श माने हम किसी को अपना आदर्श मानकर उसके सकारात्मक पहलुओं को अपनाएँ। लेकिन इसमें एक बात का फर्क है। फैन होने पर हममें एक और तत्त्व का इजाफ़ा होता है- 'गर्व'। यहीं गर्व थोड़े समय में, यदि लगाम न कसी जाए तो 'घमंड' में तब्दील हो जाता है। और फिर यहीं घमंड बाद में 'उद्दंडता' में। आदर्शवादी होने में इसी गर्व तत्त्व का अभाव होता है और इसकी बजाय हममें 'परोपकार' तत्त्व का इजाफ़ा होता है जो भारत की हर 'विविधता का मूल' है और जो हमें सच्चा भारतीय बनाता है।
दुनिया हमसे बहुत आगे निकल चुकी है। एक सदी से हम खुद के राष्ट्र के लिए 'विकासशील' शब्द ही सुनते आएँ हैं जो सुनने में बहुत अच्छा लगता है। एक ओर हम अंतरिक्ष मे नए आयाम जरूर स्थापित कर रहे हैं किन्तु वहीं सिक्के का दूसरा पहलू हमारे राष्ट्र में अंग्रेजों के आगम से शुरू हुई गरीबी आज भी पाँव पसारे बैठी है और पड़ोसी राष्ट्रों ने हमारी अर्थव्यवस्था और सुरक्षा पर हमेशा एक काली छाया बिठाये रखी है। हम बरसों पुराने हमारे ग्रंथों, हमारे महान पूर्वजों और हमारे महान योद्धाओं जो अब नही रहे के गुणगान में ही जरूरत से ज्यादा खुश नजर आते रहते हैं और अपने वर्तमान को लगातार नजरअंदाज किए हुए हैं। आज किसी का फैन होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि किसी महान आदर्श के आदर्शवादी होने की भारी जरूरत है। हमारे महान आदर्शों को पढ़िए। सुनी-सुनाई न सुनिए। अपने लिए एक अच्छा आदर्श खोजिए। इसमे वक्त दीजिए। अपनी आँखें खुली रखिए। कुछ दृश्य और कुछ आवाज़ें चुभने भी लगेगी, उन्हें चुभने दीजिए। यह चुभन भी अत्यन्त जरूरी है। फैन मत बनिए।
ऐ मेरे भारत में रहने वाले भाँति-भाँति के फैन्स दोस्तों, आँखों से यह चश्मा उतार लीजिए। हमने हमेशा लुटना ही सीखा है। हमे किसने नहीं लूटा! गजनवी के बाद अंग्रेज, अंग्रेजों के बाद नेता और अब नेताओं के बाद हमारा so called 'Yuth'! आखिरी शब्द पढ़कर कोई आश्चर्य?
यदि हाँ, तो ईमानदारी से इस प्रश्न का जवाब ढूँढिये कि भारत का Yuth होते हुए वर्तमान परिस्थितियों में, बजाय किसी महान हस्ती के आदर्शवादी होने के, आप किस सिलेब्रिटी के FAN हैं..?