Monday, September 25, 2017

पुस्तक समीक्षा : गबन

..और हिंदी साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की पुस्तक 'गबन' समाप्त की। गोदान में जहाँ ग्रामीण कृषक जीवन के विभिन्न रंगों को देखने का मौका मिलता है वहीं गबन आपको भारतीय मध्यम परिवार के रंग दिखाती है। यहाँ भी दुःख-दर्द के बीच मानव जीवन में गहरी जड़ें पसारे लालसाओं और भ्रष्ट आचारों के बादल बार-बार बरसते दिखाई पड़ते हैं जिनके कारण जीवन की सरलता और सौम्यता लगातार प्रभावित होती है और यह निम्न स्तर को गिरती चली जाती है।

मूल रूप से यह स्त्री के आभूषण प्रेम की लालसाओं को केंद्र में रखती गाथा है जो परिवार के सर्वनाश की ओर बढ़ती चली जाती है। इसके अलावा भ्रष्टाचार के बद से बदतर रूप, बीमारी का धीमा जहर और इसकी प्रचंडता वाली काली रात और अपने अस्तित्त्व को साबित करता तो कभी नकारता 'प्रेम' तत्त्व भी इस गाथा को बराबर प्रभावित करते रहते हैं। किरदारों को तो इतनी सूक्ष्म मीनाकारी से गढ़ा गया है कि मुझे नहीं लगता अंग्रेजी साहित्य में भी कहीं ऐसी बारीकियां देखने को मिलती हो। यह उपन्यास भी मानवीय संवेदनाओं का एक खास म्यूजियम है जहाँ कोई जीवन के उन तमाम अहसासों को उन तमाम भावों को जीता जाता है, जो हमारे दैनिक यथार्थ जीवन में हम अक्सर देखते महसूस करते रहते हैं।

इसे इसलिए पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम हमारे जीवन मे उन समस्त लालसाओं को एक तीसरे पक्षकार की नज़र से देख सकें, जो हमारी मानसिक सोच को निम्न स्तर की ओर धकेल रहीं हैं और जिसके फलस्वरूप हमारे रिश्ते और फिर हमारा जीवन और इसकी दीर्घकालिक खुशियाँ भी धीरे-धीरे रंगहीन होने को अग्रसर हो रहे हैं। यह इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि कभी-कभी रिश्तों में हम कुछ जरूरी संवादों को इसलिए करने से रह जाते हैं कि उससे कहीं सामने वाला अपना बुरा न मान जाए और केवल इसलिए हम चुप्पी कर लेते हैं। यहीं चुप्पी आगे चलकर दीर्घ दुष्परिणाम से हमारा स्वागत करती है। कुल मिलाकर हिंदी साहित्य जगत का एक बेहद संवेदनशील और अनमोल उपन्यास है 'गबन'।

Thursday, September 14, 2017

14 सितंबर : हिंदी दिवस

इस विश्व में ठौर-ठौर पे अलग-अलग भाषाएँ हैं।
मैंने फिर भी, हिंदी जैसी सुन्दर भाषा कहीं नहीं देखी।
सबसे खास बात, यह बिंदी लगाती है। हिंदी में से बिंदी निकाल लो तो हिंदी, 'हिंदी' नहीं रहेगी। 14 सितंबर, 1953 से प्रतिवर्ष यह दिन हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। 14 सितंबर व्यौहार राजेन्द्र सिंह का जन्मदिवस भी है जिन्होंने हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने की दिशा में अथक प्रयास किया।

हमारे देश में अंग्रेजी के पाठक 15 प्रतिशत से भी कम हैं, लेकिन अंग्रेजी अख़बार में विज्ञापन देना हिंदी अख़बार के मुकाबले कहीं ज्यादा महंगा है। लगभग हर माध्यम में विज्ञापन आंशिक या पूर्ण रूप से अंग्रेजी में परोसा जाने लगा है। लगभग हर उत्पाद की पैकेजिंग अंग्रेजी में पोती हुई मिलती है। लगभग हर दुकान, हर ऑफिस की होर्डिंग अंग्रेजी में लगी मिलती है। कुल मिलाकर अपने ही देश में हिंदी को अंग्रेजी के सामने निचले दर्जे की भाषा हम सब ने अपने व्यवहार में साबित कर दिया है लेकिन यह जानना भी आश्चर्य होगा कि यहीं भाषा फ़िजी, मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम, नेपाल में भी बोली जाती है। फ़िजी में तो इसे आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा प्राप्त है। फिर न जाने क्यूं हम इसे अंग्रेजी के सामने हीन बना देते हैं।

मुझे वे दिन याद है जब नजदीक के एक शहर में जब मेरी नौकरी लगी थी और मैं ट्रेन से घर और ऑफिस के बीच साप्ताहिक यात्राएँ किया करता था, हिंदी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार तब मैं बड़े ही असहनीय और निराश मन से अक्सर देखता था। ऐसे ही एक वाक़या मुझे याद आता है। मैं उस दिन ट्रेन के प्लेटफॉर्म को अलविदा करने के उन आखिरी पलों में, अपनी टिकट और बैग के साथ किसी तरह साधारण श्रेणी की बोगी में घुसकर सांस मात्र ले रही अच्छी-खासी भीड़ का हिस्सा हो सका। जाहिर है अगले किसी स्टॉप से पहले तो सीट मिलना नामुमकिन ही था। सफर खड़े-खड़े झेलना था। मेरे ठीक बायीं ओर एक 20-22 साल का नौजवान बड़ी ही बेबाकी, तसल्ली और मुस्कुराहट के साथ अपने फोन पे अपनी गर्लफ्रैंड के साथ गपशप में सफर काट रहा था। अगले डेढ़ घंटे मुझे खड़े-खड़े सफर ने नही, उसके फोन ने नहीं, उसकी बातों ने नहीं, बल्कि उसकी अंग्रेजी ने अधमरा कर दिया। उसे हिंदी आती थी मगर जिस जबरदस्ती से वह अंग्रेजी का 'उत्सर्जन' कर रहा था, मेरा मानना है कि दुनिया का कोई भी अंग्रेजी का शिक्षक उसे अंग्रेजी नहीं सीखा सकता। उसकी वोकेबुलरी बहुत ही सीमित थी और वो उन्हीं सीमित शब्दों से बड़ी ही निर्ममता और जबरदस्ती से अंग्रेजी घिस रहा था। खैर, रोज रोज की भागदौड़ में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं लेकिन मैं मुख्य विषय पर आता हूँ- एक विदेशी भाषा को आखिर क्यूं इतनी अहमियत देना चाहते हैं हम? क्या व्यक्तिगत विकास हिंदी में संभव ही नहीं? क्या हिंदी के बजाय अंग्रेजी में बात करने से आपकी क्लास ऊंचे दर्जे की हो जाती है? क्या अंग्रेजी में हिंदी से अधिक व्यापकता, सभ्यता, तमाम तरह के भाव और रसों का पुट है?

कम से कम मैं तो ये नहीं मानता। भारत देश का साहित्य जगत कितने ही भारतीय अंग्रेजीदा साहित्यकारों को एक पलड़े में बिठाकर तौल लो, दूसरे पलड़े में अकेले मुंशी प्रेमचंद के आगे हल्का है। भारत देश के तमाम अंग्रेजीदा राजनेताओं के समस्त अंग्रेजी उवाचों को एक पलड़े में एक साथ तौल लो, हिन्दीभाषी अकेले अटल बिहारी वाजपेयी के उवाचों के आगे वह पलड़ा हल्का है। भारत देश के तमाम अंग्रेजीदा फिल्मी अदाकारों के समस्त इंटरव्यू मय उनकी हर स्पीच एक पलड़े में रखकर तौल लो, किन्तु दूसरे पलड़े में अकेले हिंदी-वक्ता अमिताभ बच्चन के स्पीच भारी ही पड़ेंगे। यह वे चेहरे हैं जो इन तमाम मिथकों पर रौशनी डालते हैं और इन्हें झुठलाते हैं कि हिंदी कोई दूसरे या तीसरे दर्जे की भाषा हो। ये चेहरे यह साबित करते हैं कि व्यक्तिगत विकास के नाम पे ये किसी विदेशी भाषा पर भरोसा नहीं करते। समाज में असली उच्च दर्जा क्या होता है यह हमें कोई विदेशी भाषा नहीं दिखा सकती।

इतना अवश्य है कि हमें अन्य भाषाओं का ज्ञान भी होना चाहिए। और हिंदी तो हमारी अपनी भाषा है। एक बाहरी भाषा को यदि हम नया समझ कर उसे अपनाने को विकसित हो जाने की ओर बढ़ने का कदम मानने लगे जाएं तो मैं कहूंगा यह हमारी अर्धविकसित सोच का बौनापन और ओछापन है। उड़ता तो पक्षी भी है लेकिन शाम को उसे अपने घोंसले में आना याद होता है। हिंदी ही हमारा घोंसला है हमारा असली घर है। उसके बाद दूसरे, तीसरे, चौथे नम्बर पर हम और जितनी मर्जी भाषाएँ सीखें। तब जाकर जो ज्ञान अर्जित होता है वह है असली व्यक्तिगत विकास। अपनी ही भाषा को दुत्कार कर दूसरी भाषा अपना लेना व्यक्तिगत विकास नहीं व्यक्तिगत ह्रास कहलाता है। इसलिए जब जरूरत हो, समय व उद्देश्य की माँग हो, तभी अंग्रेजी का प्रयोग कीजिए। इसके अलावा जहां तक संभव हो हिंदी का प्रयोग कीजिए। इसे और सीखिए। इसका स्वाद चखिए। इससे प्यार कीजिए। इस पर गर्व करिए। इसके एवज में यह जितना कुछ आपको देगी कोई और भाषा नहीं दे सकेगी।

(आलेख 'गूगल हिंदी इनपुट' एंड्रॉइड एप मय टूल की मदद से हिंदी में लिखा गया है)

Friday, September 8, 2017

अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस

8 सितंबर यानी अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस..

भारत जैसे देश में जहाँ बाबाओं, ज्योतिष-तंत्र-मंत्र-यंत्र और धर्मान्धता की बीमारी जरूरत से कहीं अधिक फैल रखी है, इस दिवस की अहमियत कहीं ज्यादा है। इसे प्रमुखता से विज्ञापित किया जाना चाहिए। हालांकि सरकारें ये काम कभी नहीं करने वाली। यहाँ निरक्षर तो निरक्षर हैं ही है, अधिकांश साक्षर भी केवल डिग्री के साक्षर हैं। कईं बार तो वे निरक्षरों को भी मात देते हैं। एक खास उदाहरण रखूं तो वह होगा वाट्सएप्प का मिस-यूज। मेरे ख्याल से पूरे विश्व में वाट्सएप्प का इस्तेमाल 'अफवाहें फैलाने के मामले में' सबसे ज्यादा हमारे ही देश में होता होगा। और ये काम हमारे साक्षर बुद्धिजीवी पूरे आन-बान-शान से करते हैं। गूगल नाम के औजार का प्रयोग करना तक नहीं सोचते और तुरंत आया हुआ मैसेज आगे सबको ब्रॉडकास्ट! दरअसल ये भी कुछ कुछ टीआरपी वाला खेल ही है। सबसे पहले ब्रेकिंग न्यूज परोसने की कड़ी में वाट्सएप्प के जरिए हम पढ़े-लिखे भी न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज बन बैठे हैं। कहीं हिन्दू धर्म खतरे में हैं, कहीं कोई भगवान इतने खतरे में हैं कि उनके धाम से आया संदेश आगे 10 लोगों को न भेजा तो वे मेरे साथ बहुत ही बुरा करेंगे, कहीं 5 बरस पहले गुम हुआ बच्चा जो आज किसी नौकरी में लगा हुआ है और भारतभर में उसे आज भी व्हाट्सएप्प पे पूरी तन्मयता से ढूंढा जा रहा है, कहीं किसी फिल्मस्टार की फ़िल्म का सिर्फ इसलिए बहिस्कार करना है कि उनका कोई बयान किसी पार्टी या धर्म विशेष के लोगों को बुरा लगा इसलिए अब इसे देशव्यापी मुद्दा बना डालना है, यहीं हिंदुस्तान की सबसे बड़ी समस्या है। बाकी समस्याएँ तो चलती रहेगी।

दूसरी ओर बाबाओं की लीला और उनके अनुयायियों पर तो अब कुछ लिखना शेष रहा ही कहाँ हैं। तीसरी ओर ज्योतिष, तंत्र-मंत्र-यंत्र का इस देश में खास स्थान है और ये सदा रहेगा भी। बेरोजगारी की ऊंची दर, ऊल-जलूल व गैर-जरूरी सांस्कृतिक रीति-रिवाज और गिरता जीवन-स्तर इसे सदा पोषण देने का काम करता रहेगा। इस देश से महान दार्शनिक, लेखक और लीडर निकले हैं किंतु जीवन के कष्टों से तुरंत निजात पाने के लिए बस येन-केन-प्रकारेण जादू-टोना, मंत्र-ज्योतिष कैसा भी सहारा लेकर छुटकारा पाओ। जीवन की पहेली को शायद सम्पूर्ण दुनिया में इन्हीं लोगो ने समझा और सुलझाया है। साक्षर लोगों की तादाद इनमें कोई कम नहीं हैं।

ऐसे अनगिनत उदाहरण 'अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस' की हमारे देश मे अहमियत को दर्शाते हैं। यहाँ विज्ञान होते होए भी जैसे नगण्य है। महान आदर्शों के इस देश में सही मायने में साक्षर लोग बहुत कम हैं। ऐसे लोग विरले ही देखने को मिलते हैं।

इसलिए जरूरत है एक अरसे से रुके देश को आगे बढ़ने में धक्का लगाने की। आँखें मलिए, इन्हें उगते सूरज को देखने दीजिए। हवाओं को पहचानने दीजिए। तमाम चश्मे एक तरफ उतार के रख दीजिए। तमाम कुहरों से अपने मन-मस्तिष्क को आज़ाद कर दीजिए। खतरे में कोई और नहीं, आपकी स्वतंत्र सोच की शक्ति है जो किन्हीं बाहरी शक्तियों के नियंत्रण में हैं। सही मायने में सभ्य बनिए, समझदार बनिए। हर दिशा को देखिए और हर विचार का सम्मान कीजिए। विकसित राष्ट्रों के जन से सीखिए। वे लोग विकसित हैं क्यूंकि वे हमारी तरह ऊल-जलूल समस्याओं में अपने मन की साक्षरता खर्च नहीं करते। अर्थपूर्ण फिल्में देखिए, अर्थपूर्ण पुस्तकें पढ़िए, समाज में चरित्रवान सज्जनों के सान्निध्य में रहिए, विज्ञान में कुछ रुचि रखिए, ब्रेकिंग न्यूज़ से दूरी बनाइए, अपने बच्चों को समय दीजिए, अपने गुरुओं से दोबारा मुलाकात कीजिए, अपने बड़ों से उनके समय की गाथाएँ सुनिए, इतिहास पढ़िए, टीवी से दूरी बनाइए, कभी-कभी संभव हो तो खुद के लिए कुछ लिखिए, पेड़-पौधों या पशु-पक्षियों से रूबरू होइए। आपकी असल दुनिया को सिर्फ ये चीजें खुशनुमा बना सकती हैं। आज के युग में अक्षर के साक्षर तो बनना ही है, बुद्धि के साक्षर भी बनिये। दूसरों के विचार पढ़िए किन्तु अपने स्वतंत्र विचार भी खुद सृजित कीजिए। तब आप भी सही मायने में साक्षरता के पैरोकार होंगे।

Monday, September 4, 2017

पुस्तक समीक्षा : विवेकानंद - जीवन के अनजाने सच

..और मणि शंकर मुखर्जी की 'विवेकानंद: जीवन के अनजाने सच' समाप्त की। अधिकांश जगहों पर किस्सों को समझने में दिक्कतें आती है क्योंकि लेखक ने पूर्ण स्पष्टीकरण नहीं दिया और शब्दों की कमी खलती है। शुरू से अंत तक यह एक लय में भी नही चलती जो बार-बार हमें भी लय से धकेलती रहती हैं। इसके बजाय यह पुस्तक समय रेखा पर कभी पीछे तो कभी बहुत आगे चलते हुए लगातार सक्रियता दिखाती है और हमें खुद ध्यान से तालमेल बिठाना पड़ता है। लेकिन क्यूँकि यह एक कहानी न होकर विभिन्न अनजाने किस्सों का संकलन है, इसलिए इसका ऐसा होना जायज है।

यह छोटा-सा ग्रंथ है जिसमें भीतर समस्त संकलन पाँच अध्याय/शीर्षकों में विभक्त है और जो वाकई नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानंद) के जीवन के तमाम अनजाने पहलुओं से रूबरू करवाता है। यह दिखाता है कि वे वाकई कितने सक्रिय थे और उन्होंने क्या-क्या दिन देखे थे। एक ओर जीवन की अंतिम घड़ी तक पारिवारिक मुकदमे जिनमे अच्छे-खासे परिवार की जमा-पूंजी ही खत्म हो चुकी होती है, वहीं दूसरी ओर सन्यास ग्रहण कर निकले बड़े बेटे की अनगिनत बीमारियाँ और गृह-चिंता। एक ओर अधिकांश भाई-बहनों की अकाल मृत्यु तो दूसरी ओर माँ की चिंता में गमगीन मानस के साथ उनका विश्व-पथिक बन विश्व में भारतवर्ष के परचम की पताका फहराना। एक महान सन्यासी के उनतालीस वर्ष, पाँच महीने और चौबीस दिनों की कठिनतम, बेहद मार्मिक और हृदयस्पर्शी यात्रा के विभिन्न पहलुओं का संकलन है यह पुस्तक।

इसे इसलिए पढ़िए कि आप जान सकें कि कौन थे विवेकानंद, कितने कठिन रास्ते पर चले थे विवेकानंद, यह जानने के लिए पढ़िए कि कैसे एक सन्यासी, सन्यास में भी अपनी माँ को नही त्याग पाया और उसने सन्यास को उसकी सही परिभाषा उदाहरण के साथ प्रस्तुत की, उस समय की धार का अनुभव लेने के लिए पढ़िए और पढ़िए तमाम उन बातों को जो विवेकानंद पर लिखी किसी और पुस्तक में विरले ही मिल सके।