Wednesday, January 2, 2019

यात्रा..

"The traveler sees what he sees,
the tourist sees what he has come to see."
                                  - Gilbert K. Chesterton

गिल्बर्ट चेस्टरटन की ये पंक्तियां इशारा करती है कि यात्री बनिए, पर्यटक नहीं। 'पर्यटक' एक निश्चित पर्यटन योजना के तहत घर से निकले एक पार्सल की तरह होता है जो नियत पथ से होते हुए गंतव्य तक पहुंचता है। दूसरी ओर एक 'यात्री' किसी भी पूर्वनियोजित योजना के तहत नहीं, वरन कुछ नया अनुभव करने की आशा के साथ वह देखने यात्रा पर निकलता है जो यात्रा स्वयं उसे दिखाना, अनुभव कराना चाहती है। पर्यटक जगह-जगह कैमरे से अनेकानेक तस्वीरें लेता जाएगा, योजनानुसार समय पर पड़ाव पर पहुंचेगा और वहाँ से निकल अगले पड़ाव की ओर भागेगा ताकि समय पर पुनः घर पहुंच सके। एक यात्री जबकि यात्रा की गिरफ्त में होकर भटक जाना चाहता है। वो तब तक पुनः घर को नहीं मुड़ना चाहता जब तक अपनी यात्रा से सम्पूर्ण तलाश खत्म कर अपने सफल यात्रा-अनुभव को सदा के लिए दिल मे नहीं संजो लेता। वह अपने मस्तिष्क की रिक्तियों में एक नया ज्ञान सुरक्षित करने के लिए यात्रा करता है।

यात्रा की जब कभी बात हो, मुझे हिंदी यात्रा साहित्य के पितामह - राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल, 1893 - 14 अप्रैल, 1963) का नाम याद आता है, जो जीवनपर्यंत दुनिया की सैर करते रहे। हर यात्रा के साथ उन्होंने अर्जित किये ज्ञान को अपने लेखन की बदौलत अनेकानेक ग्रंथों में उकेरा। उन्होंने 11 वर्ष की उम्र में पढ़ा था -

"सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िंदगानी फिर कहाँ,
ज़िन्दगी कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ.."

इसके बाद वो सारी उम्र घूमते ही रहे, लिखते ही रहे। उन्होंने भारत देश ही नहीं वरन् एशिया और यूरोप के अनेकों देशों की यात्राएँ की और उस पर विस्तार से खूब लिखा। उन्होंने 'घुमक्कड़ शास्त्र' लिखा, जिसमें यात्रा के क्या-क्यों-कैसे प्रश्नों के हल मिलते हैं। साहित्य की हर विधा में लिखा। उन्होंने कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, जीवनी सबकुछ लिखा। यात्रा के शौकीन लोगों को राहुल सांकृत्यायन और उनके लेखन को जरूर पढ़ना चाहिए।

यात्रा एक अलग तरह का अहसास है - पीछे छूटते पेड़-पंछी, घर-मोहल्ले, नदिया-तालाब, समाज-रिवाज। जहन पर दर्ज होते जाते नए रास्ते, नए चेहरे, नए भोजन, नए भजन, नए भेष, नई भाषायें। इन सबके अलावा नए अनुभव और आनन्द। जब हम यात्रा में होते हैं, मन स्वतः प्रफुल्लित रहता है। हर नवागंतुक तब हमें एक अलग दृष्टिकोण से दिखता है। तब हम ऐसे ही किसी को नजरअंदाज नहीं करते जाते, हम गौर से हर शख़्स, हर नई वस्तु को देखते जाते हैं। तब हम नई जगहों पर खुद को सुरक्षित भी रखना चाहते हैं और अनजान नवागंतुकों से उनके परिवेश के बारे में वार्तालाप कर बहुत कुछ जान भी लेना चाहते हैं। अपने बारे में खुलकर बताना भी चाहते हैं और सुरक्षित यात्रा के संदर्भ में अपने आप को छुपाना भी चाहते हैं। ज़िन्दगी की दौड़ में यात्रा हमारे थके हुए मन को नए तरह के सुकून देती है। जरा गौर करें, दिन-भर की तमाम भागदौड़, तनाव और व्यस्तताओं के बाद रातभर की चैन की नींद, नींद में न जाने कहाँ-कहाँ घूम-फिर के अपनी थकान उतारता हुआ आता हमारा मन और फिर अगली सुबह, किसी अश्व की भांति अगली यात्रा के लिए एकदम तरोताजा यहीं मन। यात्रा भी जीवन-यात्रा की ऐसी ही एक नींद है, जो नए स्वप्न सरीखे अनुभवों से हमारे मन की थकान को उतारती जाती है।

यात्रा सिर्फ मौज-मस्ती करने संगी-साथियों के साथ कहीं दूर जाना नहीं है, यात्रा है खुद के 'स्व' को खोजने कहीं दूर तलक जाना, फिर चाहे यह किसी के साथ हो अथवा अकेले। प्रकृति और नए समाजों के नए तालमेल से नए ज्ञान हासिल करते हुए जैसे-जैसे आप घुमक्कड़ होते जाते हैं, अपने अस्तित्व के नए मायनों से रूबरू होते जाते हैं। आप दार्शनिक होते जाते हैं, आप आध्यात्मिक होते जाते हैं, आप इस दुनिया में भी अनेक दूसरी दुनियाएँ देखते जाते हैं, जिन्हें देखा जाना आपके लिए बहुत सौभाग्य की बात होती है। इसलिए यात्रा कीजिए, पर्यटन नहीं; यात्री बनिये, पर्यटक नहीं।


"किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल,
कोई  हमारी  तरह  उम्र-भर  सफर  में  रहा..."
                                       - अहमद फ़राज़

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