Wednesday, March 12, 2014
शजर जो ये सबको छाँव देता है..
Thursday, March 6, 2014
कितना अजीब-सा होता है जानां...
तुमको चुपके-चुपके से निहारना,
तुम देख ना लो इस से घबराना,
पहली बात करने की वो तमन्ना,
कोई और तुमको देखे तो जलना..
कितना अजीब-सा होता है जानां...
हिम्मतें जुटा कुछ शरारत करना,
तुम्हारे सामने सारी निडरता खो देना,
कहना हो कुछ.. कह कुछ और देना,
और पहला संवाद आखिर कर ही लेना..
कितना अजीब-सा होता है जानां...
खुशियों में तुमको शामिल करना,
उदासियों में तुमको याद करना,
हैरतों में तुमसे जवाब जानना,
मन्नतों में सिर्फ तुम्हें ही माँगना..
कितना अजीब-सा होता है जानां...
मिलने को तुमसे घण्टों इंतज़ार करना,
मिलने पर बातों के विषय तलाशना,
और धड़कनें थाम के फिर किसी रोज,
सारे हौसले जुटा तुमसे इज़हार करना..
कितना अजीब-सा होता है जानां...
आदतों में तुमको ही शुमार करना,
चाहतों में तुम्हारी खुद को बीमार करना,
हर मज़हब में तुम्हारी इनायत करना,
तुम्हारे अक्स में सारी कायनात देखना..
कितना अजीब-सा होता है जानां...
तुम्हीं से शुरू हो तुम्हीं में ख़त्म होना,
ज़िंदगी का तुम्हारी राजसी रत्न होना,
तुम्हारी खुशियों की शाही बज़्म होना,
तुम्हारी ज़िंदगी की एक नायाब नज़्म होना...
Tuesday, March 4, 2014
काश ऐसा होता..
काश ऐसा होता कि हिंदू कहते यहाँ मस्जिद बनाएंगे.. मुस्लिम कहते कि नहीं, यहाँ मंदिर बनाएंगें।
पर राजनीति के वजीरों ने अंग्रेजी-हुकूमत की नीति खेली.. "फुट डालो और राज करो।" आज तमाम देशवासी धर्म के नाम पर इस राजनीतिक जाल में फंस 'धार्मिक घमंड' का शिकार हुए बैठे हैं। अपने धर्म पे इतना घमंड..? इतना कि दुसरे का धर्म ही बेहूदा लगने लगे..? इतना कि दुसरे के धर्म की धज्जियां उड़ाने लग जाएँ..? क्या आपका धर्म ये सब नसीहतें देता है..? क्या ये सब करके आप अपने धर्म का अनुसरण कर रहे हैं..? क्या ऐसे ओछे काम करने की इजाजत दे देता है आपका धर्म..? तो फिर किसका धर्म बेहूदा हुआ..?
धर्म का तो सिर्फ एक ही अर्थ होता है- मानवता। दूसरों को नुकसान ना पहुंचाना। समानता का रवैया अपनाना। सब के प्रति आदर भाव रखना।
पर आज तो कोई भी नौसीखिया "सोशल साईट्स" पर अपना ही पेज बना हर ग्रन्थ, हर धर्म और हर ईश्वर पर अपनी कच्ची बुद्धि से तैयार किये गए स्वनिर्मित, अनैतिक और अनुचित विचार थोप रहा है। इनके आक्रामक तेवर से एक पक्ष आकर्षित हो उसके साथ जुड़ता है तो दूसरा पक्ष आहत हो प्रतिक्रिया देता है। दोनों पक्षों को नहीं पता कि असल में उनका मकसद क्या है?
कैलेण्डर में तो सब धर्म से जुडी छुट्टियां होती है। त्यौहार चाहे किसी कौम का हो, छुट्टी सब मनाते हैं। तो ये दोगलापन क्यों? खुश ना रहने की वजहें खुद चला के क्यों इजाद करते फिरते है । धर्म तो अलग अलग इसीलिए बनाए गए होंगे कि दुनिया में रंगत बनी रहे और दूसरों के रिवाजों में भी शरीक हो खुशियाँ और ज्यादा इजाद की जा सके। अपने ही अपने रीवाजो से कुछ थोडा अलग जो देखने को मिले।
पर नहीं। हमारे वजीरों ने जो "बीज" हम में बोये है हर युग में, मकसद जिसका हमें उनके पक्ष में हो उनको (भेड़-झुण्ड के रूप में सिर्फ और सिर्फ) एक तादाद देना है, जिसके बूते वो अपनी हुकूमत के पत्ते खेल सके,उन बीजों से नए पौधे तो निकलने ही हैं। नयी खेप तो उगनी ही है। एक ऐसी नयी खेप जो खुद आगे चलकर ऐसे ही "बीज" देगी।
...दुनिया तरक्की कर रही है। हमें सिर्फ दुनिया की तरक्कियों के उदाहरणों से मतलब है, उनपे अमल करने से नहीं। हिन्दू बेकार है। मुस्लिम भी बेकार है। काश अच्छे होते। पर शायद दोनों सही है कि दूसरा वाला बेकार है। यानी दोनों ही बेकार है। इन "बुद्धिजीवियों" को देखकर तो ऐसा ही लगता है। तो फिर छोड़ दीजिये ना धर्म की ये आडंबरता जो बेकार है। कभी तो इंसान बनिए। पडोसी को उसके भाई ने तोहफा दिया तो सोचने लगे की काश मेरा भी ऐसा कोई भाई होता। ..पर ये क्यों नहीं सोच सकते कि काश वो तोहफा देने वाला भाई मैं होता।
काश ऐसा होता कि हिंदू कहते यहाँ मस्जिद बनाएंगे.. मुस्लिम कहते कि नहीं, यहाँ मंदिर बनाएंगें।
वर्ना तो फिर ठीक है.. जो चलता आया है, वो ही चलते भी रहना है। अच्छा है। चलते रहिये...
Thursday, January 9, 2014
शेर-ओ-शायरी (भाग-2)
वफ़ा का ताबीज़ इस गले में अब भी लटका है,
कुछ अल्फाजों का पुलिंदा हलक में अब भी अटका है।
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अब होली में बचपन वाली शोखी नहीं बची,
परदेसी रंगों ने इसमें अगल़ात घोल दी है।
(शोखी = चंचलता; अगल़ात = अशुद्धियाँ)
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सफ़र-ऐ-मुहब्बत में अब जलजलों से आजमाईश नहीं की जाती,
जिद का वो दौर और था, समझौतों का ये दौर और है।
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ये किसे तुम शेर सुनाते हो मुहब्बतों के 'आनन्द',
बाशिंदे ये 'मौका-परस्ती' की पाठशालाओं से निकले हैं।
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उसूल-आदर्श-इंसानियत के वो किस्से अब हवा हुए,
यही तल्ख़ हकीकत है बच्चे ये 'सिर्फ उम्र से' जवाँ हुए..
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आज भी कुछ चूल्हे नहीं जले, कुछ पेट नहीं पले,
आज भी कही मकान ऊंचे हुए, कही ईमान नीचे हुए।
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सैलाब-ऐ-इश्क में जूनून की कश्ती संभालूं कैसे,
इन मदहोश हवाओं में होश में आऊँ कैसे,
तुम्हारे चाहत के इस समंदर में खोया हुआ,
ऐ जलपरी तुम्हे तलाश के मैं चुराऊं कैसे..
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आज़ाद उड़ती तितलियों सी ये यादें तुम्हारी,
महकते ताज़े गुलाबों सी ये बातें तुम्हारी,
अपनी दुनिया के सभी आईनों से पूछ लेना,
कितनी हसीन होती है ये मुलाकातें तुम्हारी..
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महफ़िलों में जिंदादिली के रंग भरिए,
उदास चेहरों पे आशाओं की उमंग भरिए,
कल तुम्हारा भी सफ़र ख़त्म हो जाएगा,
याद आओ सबको ऐसा 'संग' भरिए