Saturday, November 14, 2015

छोटी-सी बात..

अब कहाँ वो राहतें, वो चैन खेल-कूद की होड़ में
हम भी शरीक हुए अब, रोटी कमाने की दौड़ में...

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हर चीज़ की कुछ तो कीमत चुकानी ही पड़ती है,
मुफ़्त में तो सिर्फ माँ का प्यार नसीब हो सकता है...

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सब फरेब हैं 'मन' के,
सब खेल हैं 'तन' के..

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आईना पूछता रहा कौन हो तुम
आँखें जानती थी जवाब, खामोश रही..

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दिन के शोर-शराबे से रात की चुप्पी अच्छी,
चेहरे तमाम झूठे और मन की हर बात सच्ची..

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दुश्मनी की होड़ में नित खंजर बदल जाते हैं,
कौमें मर-मिट जाती है, मंज़र बदल जाते हैं,

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इंसान हो के इंसान की जान ले,
इंसान वो असल में इंसान नहीं..

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रातें भी बड़ी विचित्र होती हैं,
नित कितने 'राज़' लिखती है यें..

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फैला इनका गज़ब व्यापार है,
चैनल आज सौ से भी पार है,
फूहड़ हर ज्ञान और मल्हार है,
ना वो 'सुरभि' ना 'चित्रहार' है

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कुछ यूं भी हमें रास ना आई
रिश्वत करारे नोटों की,
वो गाँधी भी क्या सोचेगा
'प्यास' देख के मेरे होटों की..

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स्वर-व्यंजन से बना अक्षर, अक्षरों से शब्द
शब्दों से बने वाक्य और फिर पूरी एक कहानी।
कहानी मैं हूँ, स्वर-व्यंजन तुम।

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